________________ प्राप्ता कथं नवति नैव सुवृष्टि ( ?) माा (रद्य) "दिव्या दिवः पतति ते घचसा ततिर्वा" // 33 // हे नाथ, कामदेवकी अग्निसे मेरा हृदय जल रहा है / इस लिये मै आपके वचनरूपी अमृतकी वर्षाके पूरमें स्नान करनेके * लिये आई हू / सो अब वह आपकी दिव्यवर्षा अथवा वचनोंकी पक्ति स्वर्गसे क्यो नही बरसती है? अर्थात् आप बोलते क्यों नहीं हैं। कामोरगेन्द्रविषदन्तकृतव्रणाय सङ्ग त्वदीयममृतौषधमाशु देहि / नोचेन्मदीयमरण हि त्वदीयकाष्ठा "दीप्त्याजयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम् // 34 // हे कान्त, कामरूपी सर्पराजक विषदन्तोंसे मेरे हृदयमे धाव पड गये है / इसलिये उनके अच्छे होनेके लिये आप अपने सयोगरूपी अमतकी औषधि शीघ्र ही दीजिये / नहीं तो अवश्य ही मैं मर जाऊगी / आपका प्रभाव अपने प्रकाश करके चन्द्रमासे शोभायमान् रात्रिको भी जीतता है / अभिप्राय यह कि, आपसे तो अमृत औषधकी प्राप्ति होनी ही चाहिये / क्योंकि चन्द्रमासे अमृत झरता रहता है। अस्मिल्ललाटपटले व्यलिखद्विधाता ___ यां दुल्लिपिं निजकरान्मम प्राणनाथ। कस्त्वद्विना प्रमृजितुं भगवन्समर्थः "भाषास्वभावपरिणामगुणप्रयोज्यः" // 35 //