________________ पस्माइयारसमयं समयं जनेऽस्ति ___"प्रक्यापयत्रिजगतः परमेश्वरत्वम्" // 31 // कामदेवरूपी व्याधाने मुझे 'किधर जाऊ किधर न जाऊ' इस तरह सोचती हुई भयभीत मृगीकी नाई अपने हिंसास्थानरूप बाणका निशाना बनाई है / इसलिये हे भगवन, मेरी रक्षा करो। क्योकि लोकमे आपका तीन जगतका परमेश्वरपना आपके दयारसमयी सिद्धान्तको प्रगट करता है / अर्थात जब सारे जगतमें आपकी दया प्रसिद्ध हो रही है, तब दया करके कामव्याधके पजेसे मुझे बचा लीजिये। बालां विहाय दयनीयतरां गतस्त्व कृत्वा दयां पशुगणे मयि निर्दयत्वम् / निर्दषणं मम हृद कुरु हे दयालो "खे दुन्दुभिनति ते यशसः प्रवादी" // 32 // हे नाथ! आप इस अतिशय दयाके योग्य बालाको छोडकर चले आये! आपने पशुओंपर दया करके मुझपर बडी भारी निर्दयता की। परन्तु हे दयालु, आकाशमे आपक यशका बखान करनेवाले दुन्दुभी बजते है, इसलिये इस विषयमें मेरे हृदयको शल्यरहित कर दीजिये। अर्थात् मुझे आपकी दयाके विषयमें जो शका हो गई है कि-"यह कैसी दया, जिसमें पशुओंपर तो दया परन्तु दयायोग्य स्त्रीपर निर्दयता की जाती है" सो उसे निकाल दीजिये। नाथ त्वदीयवचनामृतवृष्टिपूरे स्नानाय हुन्मदनवनिविदहमाना।