________________ मुख थोडी देरके लिये आनन्दका कारण हुआ था, हाय! विधाताने उसको तत्काल ही इस तरह अदृश्य कर दिया, जिस तरहसे बादलोंका समीपवर्ती सूर्यका प्रतिबिम्ब थोडी देरके लिये दिखकर छुप जाता है। भद्रासने समुपविश्य जगजनाना मुर्विभास्यसि विभो नयमार्गमत्र्यम् / सन्दर्शयन्यदुकुलैकललाम विम्बं "तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मः // 29 // हे विभो, हे यादववशके अद्वितीय शृगार, आप कल्याणरूप आसनपर विराजमान होकर जगवासी जीवोके लिये श्रेष्ठ नयमार्गको दिखलाते हुए ऐसे शोभित होंगे, जैसे ऊचे उदयाचलके शिखरपर सूर्यका बिम्ब शोभित होता है / मात्रमन्जनरुचा भवता व्यवाये नूनं विभास्यति सुवर्णसवर्णवर्णम् / साम्बुवाहनिवहेन नतेन काम "मुश्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम्" // 30 // हे प्राणप्यारे, संभोगक्रीडाके समय मेरा सुवर्णवर्ण (सोनेके रंग: सरीखा ) शरीर आपके शरीरकी साँवरी प्रभासे ऐसा शोभित होगा, जिस तरहसे सुमेरुपर्वतका सुवर्णमयी ऊचा तट पानीसे भरे हुए भौर झुके हुए श्याम मेघोसे शोभित होता है। सूनाशुगस्य विषमायुधलुब्धकेन लक्ष्यीकृतामय मृगीमिव कान्दिशीकाम् /