________________ हे प्राणनाथ, आप ही मेरे पूर्वके अनेक जन्मोंसे बँधे हुए स्नेहके स्वामी कामदेवस्वरूप पति हैं / सो इस भवमें तो क्या अन्य भवोंमें भी कोई मेरे मनको हरण नहीं कर सकता; चाहे वह विद्याघर हो, चाहे कामदेव हो, और चाहे साक्षात् इन्द्र ही हो। निष्कारणं मयि यथा वहते विरोध मेषा तथा न हि विभो निखिला दिशस्ता। मस्पीडनार्थमचिरात्सकलेन्दुविम्बं ___ "प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम्" // 22 // है विभो, जिस प्रकार विना कारण यह पूर्व दिशा मेरे साथ विरोध करती है, उस प्रकार अन्य सब दिशायें नहीं करती। मुझे 'दुःख देनेके लिये तो यह पूर्व दिशा ही स्फुरायमान किरणोंको 'धारण करनेवाले पूर्ण चन्द्रको बार बार उत्पन्न करती है / गत्वा निजं पुरमवाप्य नराधिपत्वं / / साकं मया सफलयाशु धयो नवीनम् / तत्रोचितं कुरु वृषं यदि मुक्तिकामो "नान्य शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः" // 23 // / अब प्यारे, अपने नगरको चलकर और राजपदको प्राप्त करके मेरे साथ इस नई उमरको सफल कीजिये / और यदि आपकी मोक्ष प्राप्त करनेकी ही इच्छा हो, तो वहींपर उचित धर्मकी पालना कीजिये / क्योंकि हे मुनीन्द्र, इसके सिवाय मोक्षका कोई दूसरा कल्याणकारी मार्ग नहीं है / अर्थात् गृहस्थावस्थामें रहते हुए धर्मका पालन करना ही मोक्षका सुखसाध्य मार्ग है।