________________ इत्थं स्तुतो यदि विभो विरहं भिनत्सि भिन्नस्तदा रमण संवननैरलं मे। दावानलः शममुपैति घटाम्बुमिश्चेत् "कार्य कियजलधरैर्जलभारनप्रैः" // 19 // हे विभो, इस प्रकार स्तुति करनेसे यदि आप मेरी विरहज्वालाको शान्त कर देगे, तो फिर हे रमण, मुझे वशीकरणकी अन्य क्रियाओंसे क्या प्रयोजन है? दावानल यदि घडेके जलसे ही शान्त हो जावे, तो फिर पानीके भारसे झुके हुए बादलोंसे क्या काम है? याभिः कदाचिदपि देव निरीक्षितस्त्व मन्येन ताः कथमहो रतिमाप्नुवन्ति / रत्ने यथा सहृदयाः खलु सादराः स्यु "नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि" // 20 // हे देव, जिन स्त्रियोने आपको कभी एक बार भी देख लिया, वे भला दूसरेके साथ कैसे प्रेम करै क्योकि जो सहृदय पुरुष हैं, वे जैसी रत्नमे आदरबुद्धि रखते है, वैसी कांचके टुकडेमें यद्यपि वह किरणोंसे आकुल अर्थात् प्रकाशमान होता है - तो भी नहीं रखते है। तात्पर्य यह कि, आप जैसे पुरुषरत्नका दर्शन करके अब मै अन्य कांचखडके समान पुरुषों में प्रेम नहीं कर सकती। प्राणेश पूर्वभवसन्ततिसभिबद्ध स्नेहस्त्वमेव रमणो मम कामरूपः। विद्याधरोऽपि मदनोऽपि न वासवोऽपि "कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि" // 21 //