________________ हत्पङ्कजस्य न कथं विदधासि बोधं नो वा वियोगतमसः कुरुषे विनाशम् / प्रोद्यत्करप्रसरतः परितो यतस्त्वं "सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र लोके” // 17 // हे मुनीन्द्र, भाप लोकमें सूर्यसे भी अधिक महिमाके धारण करनेवाले प्रसिद्ध है, फिर आप अपने उद्यमशील करोंको (पक्षमें, किरणोंको ) सब ओरसे प्रसार करके अर्थात् भुजाओंसे वेष्टित करके मेरे हृदय कमलको प्रफुल्लित क्यों नहीं करते तथा वियोगरूपी अधकारका विनाश क्यो नहीं करते (ऐसा किये विना आप सूर्य सरीखे कैसे हो सकते है? जैसे वह अपने करोंसे कमलोंका विकाश और अन्धकारका विनाश करता है, उसी प्रकार आपको अपने भुजालिङ्गनसे मेरे हृदयको प्रफुल्लित और वियोगको नष्ट करना चाहिये / ) तद्वीक्षितं प्रकुरुते परितापमङ्गे खेतत्तु सम्मदममन्दतमं तनोति / चित्रं विभो तव मुखं सुतरां विभाति विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङ्कविम्बम्" // 18 // आश्चर्य है कि, चन्द्रमाके देखनेसे तो शरीरमें बड़ा भारी ताप उठता है--वियोगाग्नि सुलग उठती है, परन्तु आपका यह मुखचन्द्र देखनेसे अतिशय आनन्द होता है- हृदय शीतल हो जाता है / इसलिये हे विभो, आपका मुख जगतको प्रकाशित करनेवाला एक अपूर्व चन्द्रमा है।