________________ उज्ज्वलमुख, सूर्यमें आपका तेज और गजराजमें आपकी चाल देखती हू। परन्तु हाय, मैं क्या करू, आपके समान एकत्रास्थित सारा रूप दूसरा कहीं नहीं है / अभिप्राय यह है कि, आपके एक एक अगकी उपमाएँ तो ससारमें मिलती हैं, पर आपके सारे रूपकी तुलना किसीसे भी नहीं हो सकती है जिसे देखकर में कुछ धैर्य धारण करू। यनिर्मितं निशि निशाकरमण्डलेन गुप्तं तमो विरहिणिवजघातघोरम् / प्रद्योतनः प्रकटयत्यखिलं तदाशु "यद्वासरे भवति पाण्डु पलाशकल्पम्" // 13 // हे नाथ, यह चन्द्रमडल रातको जो विरहिणी स्त्रियोका प्राण लेनेवाला घोर अन्धकार बनाता है, और छुपाकर रखता है, सूर्य उस सबको शीघ्र ही प्रकाशित कर देता है। यही कारण है कि, चन्द्रमा अपनी कृतिके प्रगट हो जानेसे दिनमें पलाशके (टेसूके) सफेद पत्तेके सदृश कान्तिहीन हो जाता है - उसका मुह फीका पड़ जाता है। भाव यह कि, चन्द्रमाकी कृतिको तो सूर्य प्रगट कर देता है, पर आपकी कृतिको-आपने जो मुझे वियोग दुःख दिया है उसको, कोई प्रकाशित नहीं करता! तरिक वदामि रजनीसमये समेत्य चन्द्रांशवो मम तनुं परितः स्पृशन्ति / दूरे धवे सति विमो परदारशक्तान "कस्तानिवारयति संचरतो यथेष्टम्" // 14 //