________________ एतन्मदीरितवचः कुरु नाथ नोचे द्रोत्स्यत्यरं क्षितिपतिः स्वयमुग्रसेनः / कुर्वन्तमुत्तमतपोऽपि भवन्तमेष " नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम्" // 5 // "हे नाथ, आप हमारी यह बात माने अर्थात् इस सुन्दरीको अगीकार करे / नहीं तो, स्वय महाराज उग्रसेन ही शीघ्र आकर आपको रोकेगे / यद्यपि आप यह उत्कृष्ट तप कर रहे है, तो भी क्या वे अपनी बालिकाकी रक्षा करनेके लिये नहीं आवेगे और आपको नहीं रोकेगे? अवश्य ही रोकेगे / " सम्भोगकेलिकुशलं रमणं रसज्ञाः स्त्रीणामकृत्रिमविभूषणमामनन्ति / यन्मण्डनं वनततेर्नियत वसन्त “स्तञ्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतु" // 6 // सखियोके इस प्रकार कह चुकनेपर राजमतीने कहा:-हे नाथ! रस रीतिके जाननेवाले मानते है कि, सभोगक्रीडामें चतुर पति ही स्त्रियोंका विना बनाया-स्वाभाविक भूषण होता है अर्थात् पतिके कारण ही स्त्रीकी शोभा होती है। वन पक्तियोके लिये जो वसन्तऋतु शृगारस्वरूप होती है, सो सुन्दर आमके मौरोके कारणसेही, होती है। दोकन्दलीग्रथितगाढतरोपगूढे नान्योन्यचुम्बितमुखेन सखे प्रकामम् / सङ्गेन ते विलयमेति वियोगदुःखं "सूर्याशुभिन्नमिव शार्वग्मन्धकारम्" // 7 //