________________ नमः श्रीनेमिजिनेन्द्राय। श्रीरत्नसिहमुनिविरचित प्राणप्रिय-काव्य। (सरल हिन्दी अर्थ सहित) प्राणप्रियं नृपसुता किल रैवताद्रि शृङ्गाग्रसस्थितमवोचदिति प्रगल्भम् / अस्मादृशामुदितनील वियोगरूपेऽ "वालम्बनं भव जले पततां जनानाम् // 1 // अर्थ- उग्रसेन राजाकी पुत्री राजीमती गिरनारपर्वतके शिखरपर विराजमान हुए अपने प्रतिभावान् प्राणप्यारे श्रीनेमिनाथजीसे इस प्रकार बोली कि, हे श्यामसुन्दर, वियोगरूप जलमें पड़ते हुए हम जैसे जनोके लिये आलम्बन हूजिये, अर्थात् मुझे सहारा देकर इस विरहसमुद्रसे निकाल लीजिये। ऊचे सस्त्रीसमुदयः सदयस्ततस्तां चेतः स्थिरीकुरु नितम्बिनि मा विषीद / चञ्चचकोरचटुलाक्षि कृते भवत्याः "स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् " // 2 //