________________ जावेगे, इसाय उद्वेग वाहमे मारवाह होत वाहका काव्यवर्णित कथाका पूर्वसम्बन्ध / यदुवंशी राजा समुद्रविजयके पुत्र नेमिनाथ जो कि जैनियोंके बावीसवें तीर्थकर है, जिस समय राजा उग्रसेनकी कन्या राजीमतीके साथ विवाह करनेके लिये जूनागढ (काठियावाढ ) आये, उस समय उन्होंने देखा कि, एक स्थानमें हजारों पशु बंधे हुए बिलबिलाट कर रहे हैं। रथके सारथीसे पूछनेपर मालूम हुआ कि, वे पशु विवाहमें आये हुए बरातियो और पाहुनोंके भोजनके लिये मारे जावेंगे, इसलिये सग्रह किये गये है। बस यह मालूम होते ही नेमिनाथको अतिशय उद्वेग हुआ / 'मेरे एक जीवके सुखके लिये इतने निरपराधी जीव जिस विवाहमे मारे जावेंगे, उस विवाहकी मुझे आवश्यकता नहीं। और जहा ऐसे विवाह होते हैं, उस ससारसे भी मुझे प्रयोजन नहीं | यह कहकर उन्होंने विवाहका सारा शूगार उतारके फेंक दिया, और गिरनार (रैवतक) पर्वतपर जाकर दिगम्बरी दीक्षा ले ली / इस घटनासे जूनागढमे खलबली मच गई / सब लोगोंने रोकनेका प्रयत्न किया, पर वह निष्फल हुआ / राजीमती कन्या जो कि नेमिनाथके रूप और गुणोपर अतिशय मुग्ध थी यह खबर सुनते ही मूर्छित हो गई। निदान वह भी अपनी सखियोके सहित गिरनार पर्वतपर गई और स्वामीके निकट जाकर इसलिये कि, वे दीक्षाका परित्याग करके मेरा पाणिग्रहण कर लेवे, नानाप्रकारके विनय अनुनय करने लगी। इस छोटेसे काव्यमें राजीमतीके उन्हीं विनय अनुनयोंका वर्णन है। अन्तमें राजीमतीको निराश होना पडा / भगवान् नेमिनाथ अपनी प्रतिज्ञापर आरूढ रहे, इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने उपदेश देकर राजीमतीको भी ससारसे विरक्त कर दिया, और वह अर्जिकाकी दीक्षा लेकर तपस्या करने लगी।