________________ (46) से विष निकालकर उसमें ताजगी उत्पन्न करते है / और आम्यंतर तप आत्माके ज्ञानादि गुणका विकाश करते हैं। संयम-अर्थात् नियमादि लेना / इन्द्रियोंके वशमें कर सकने योग्य कारणोंको मिलाना और उन कारणोंसे जिनसे कि आत्मा दुराचारमें प्रवृत्ति करता है आत्माको बचाना संयम कहलाता है। ___ आकिंचन-शरीरादिकमें ममत्व भावके न करनेको आकिंचन कहते हैं / इस प्रकार दश आत्माके स्वभावोंमें आत्माको रंजित कर इनसे विपरीत विभावोंसे आत्माको दूर रहनेका अभ्यास दशलाक्षणिक व्रत है। इसी तरह रत्नत्रय व्रत भी आत्माके सच्चे स्वभावमे लीन रहनेका अभ्यास करता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र अर्थात् सत्य और शुद्ध दर्शन, विश्वास मत्य और शुद्धज्ञान व शुद्ध चारित्रकी भावना करना इनके समीपवर्ती होनेका अभ्यास करना रत्नयत्र व्रत हैं / सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रको रत्नत्रय कहा है अर्थात् ये तीनों रत्न है, रत्नके समान हैं / आत्माके असली स्वभाव ये ही तीनों है। इनका बहुत कुछ वर्णन दर्शनविशुद्धि और बारह ब्रतमें हा चुका है / इन तीनों महाव्रतके सिवाय अन्य जो व्रत है उनका भी केवल उद्देश्य आत्माको स्वभावमें रहनेका अभ्यास डालनेका है। परंतु दुःख है कि हमारी वर्तमान क्रियाएँ इस उद्देश्यसे विपरीत हो रही हैं। अब हम करते तो अनशनादि तप है-घोड़शकारणादि व्रत हैं, परंतु अपने चिरकालके अभ्यासानुसार इन तप और व्रतके दिनोंमें भी कपायोंको नहीं छोडते-क्रोव मान माया लोभ को नहीं त्यागते, किंतु और भी अधिकतासे कषा