________________ (43) ( 2 ) स्तवन--परम पदको-पूर्ण विकाशको प्राप्त हुई आत्माओंका ध्यान करना। (3) वंदना--ध्यानके वाद ऐसी आत्माओंको नमन करना / (4) प्रत्याख्यान-सर्व जीवोंसे मैत्री माव-विश्वबंधुत्वकी भावना करना / (5) प्रतिक्रमण-अपने कृत पापोंका वर्णन कर पश्चात्ताप करनापश्चात्तापकी अग्निमें दुष्कृत्योंको जलाकर आत्माका विकाश करना / (6) कायोत्सर्ग-शरीरकी क्रियाओंको कुछ समयके लिये मर्यादित करना, जिससे कि मन, बचन और काय वशमें हों विमावकी ओर न जासकें। इस प्रकार इन छहों आवश्यकोंका करना आवश्यकपरिहाणि कहा जाता है। प्रायः देवा जाता है कि सामायिक करते समय हमारे कई भाई प्रत्याख्यान, बदना, स्तवन, प्रतिक्रमण आदिके जो पाठ पूर्व विद्वानों के बने हुए है उन्हें ही बोललेनेसे उन कार्योंकी पूर्ति हुई समझ लेते है, पर यह भ्रम है / अमलमें किमी खास पाठके बोल लेनेसे ही प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान आदि नहीं होते। किंतु भावपूर्वक अपनी स्थितिको देखते हुए जो अपने शब्दोंसे प्रतिक्रमण आदि किये जाते है वे सच्चे आवश्यक है। केवल कोई पाठ पढ़ लेनेहीसे विश्वबंधुत्त्वकी भावना और पापोंका प्रायश्चित्त हो गया ऐसा समझना बड़ी भारी भूल है, और कुछ कार्यकारी नहीं है। अतएव इन क्रियाओंको अपने शब्दोंसे अपने मनसे एवं अपने शरीरसे करना चाहिए ताकि आत्मामें समभाव उत्पन्न हो /