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________________ (39) (6) दान-दानको तत्त्ववेत्ताओंने त्याग शब्दसे उल्लिखित किया है / अपनी शक्तिका अपनी सामर्थ्यका दूसरों के लिये त्याग करना दान कहलाता है। त्याग करनेवाला महात्मा क्षुधासे पीडित तो है परंतु उसके पास भोजन है और मानो वह भोजन करनेके लिये तयार है इतनेमें यदि कोई क्षुधातुर प्राणी उसके पास आ जायगा तो वह अपनी पर्वाह न कर सामनेका भोजन उस क्षुधातुरको देगा। इसी तरह त्यागी मनुष्य अपनी प्रत्येक शक्तिको दूसरोंके उपयोगके लिये समझे गा / उसकी शक्तिसे संपत्तिकी तिजोरी दूसरों के लिये सदा खुली रहेगी / दूसरोंको भखे देखकर वह भोजन नहीं करेगा / दूसरोंको रोगी छोड़कर वह आरामसे नहीं सोयगा। दूसरोंको अज्ञानी देखते हुए भी वह अपना द्रव्य मोगविलासोंमें व्यय न करेगा। अपने सामने वह किसी भी प्राणीको कष्ट होता हुआ नहीं देख सकेगा / साराश दानी पुरुषोंकी शक्तियाँ सदा दूसरोंके लिये ही रहती है। वह जो कुछ करते है भावसे करते हैं दिखानेको या प्रतिष्ठा प्राप्तिके लिये नहीं। प्रतिष्ठा प्राप्तिके लिये दान करना दान नहीं कहलाता वह तो मान है, दुरिच्छा है-पाप है, मानवीय गुणमे विरुद्ध है / ऐसा दान करना सच्चा दान नहीं है। यहाँ पर षोडश कारणोंमें जो दान कहा गया है वह वही सच्चा दान है-त्याग है जिसे ऊपर कह चुके है। इसी प्रकारका त्याग करनेका अभ्यास करना त्याग व्रत है। इस त्यागवतसे विश्वबंधुत्व गुणका विकाश होता है जिसकी कि अवश्यकता तीर्थंकर पदमें होती है और जिससे कि यह पद विश्वहितैषी माना गया है।
SR No.010656
Book TitleAnitya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1914
Total Pages155
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size5 MB
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