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________________ (38) (12) अतिथि संविभाग--विना किसी प्रकारके फलकी इच्छाके सुयोग्य साधु आदिको दान देना अतिथि संविभाग है। दानके सबंधमें आगे लिखेगे / इस प्रकार बारह प्रकारके चारित्रोंके निर्दोष पालन करनेसे आत्मामें शुद्धताका विकाश होता है। विकार भावोंका नाश होता है उसका अभ्यास स्वभावमय होता जाता है। क्योंकि उसके द्वारा अब दूसरोंको दुःख देनेकी क्रियायें, छल कपट माया लोमादि कषाय, दूसरेका स्वत्व छीननेकी राक्षसी महत्वाकाक्षा, ब्रह्मचर्यके घातक मोगादि दुष्कृत्य नहीं होते किंतु आत्मामें भोगविलासकी इच्छा, आवश्यकताकी आवश्यकतायें कम होती जाती हैं और आत्माका विकाश होता जाता जाता है / इसलिये शील व्रतोंकी दूसरे शब्दोंमें कहें तो चारित्र व्रतका पालन करना चाहिये ताकि आत्माका कष्ट सहन, समाजसेवा आदि कार्योंमें उत्साह बढता जावे / (4) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग। सत्य ज्ञानका ध्यान रखना और उसीमें अपने चित्तको लगाना अभीक्ष्ण ज्ञानोपभोग कहलाता है। इससे आत्माके ज्ञानगुण का विकाश होती है। सदा उठते बैठते चलते फिरते ज्ञानकी ही बातें तत्वोंकी चर्चा आदि द्वारा ज्ञानका निरतर सहवास करना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। (5) संवेग-आत्माको दु.खोंके कारणोंसे बचाये रखनेका सदा ध्यान रखना, उन कारणोंमे प्रवृत्ति नहीं करना, उनसे बचाये रहना सवेग है। इससे आत्मा खोटे कारणोंसे अपने आपको बचाये रखता है और अपनी प्रवृत्तिको शुद्धरूपमें क्रमशः चढाता है।
SR No.010656
Book TitleAnitya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1914
Total Pages155
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size5 MB
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