________________ (35) का कारण वीर्य है / इस वीर्यको नाश होनेसे मानवीय गुणोंका हास होता है, क्योंकि आत्मा यद्यपि ज्ञानवान है परंतु सासारिक अवस्था में अपने ज्ञानका उपयोग करनेके लिये उसे शरीरकी आवश्यकता रहती है और शरीर टिकनेका उससे ज्ञानका उपयोग लेनेका कारण वीर्य है, अतएव ब्रह्मचारी रहकर वीर्यका उपयोग करना चाहिये / यदि हमारी स्थिति ब्रह्मचर्यके प्रतिकूल हो तो हमें अपना एक सहचारी बनाना चाहिये जिससे कि हमारे अन्य कार्योंमें सहायता प्राप्त होनेके साथ साथ हमारे वीर्यका भी दुरुपयोग न हे। इस सहचारीको अपना अर्धाङ्ग-अमिन्न हृदय समझना चाहिये / इसके लिये सदा अपने सुखोंका भोग देना चाहिये / अर्थात् इसे अपने शरीरका एक दूसरा माग समझना चाहिये / (ब्रह्मचर्यव्रत) (4) इच्छाओको दबाकर किसी मर्यादामें करना और फिर उसी सीमाके अदर इच्छाओंको इस तरह फिराना कि वे मर्यादासे बाहिर न जाने पावें किन्तु और भी सकुचित होती जॉय और एक दिन इच्छा रहितावस्था प्राप्त हो। क्योंकि इच्छारहित अवस्थाही सुखका कारण है / इसलिये हमें अपनी भोगविलासकी वस्तुओंकी सीमा बाधना होगी। अर्थात् हम अपने पास अमुक परिमाणसे ज्यादह द्रव्य, मकानात, जागीरदारी आदि न रखना / इस गुणसे आत्मामें विकार भावोंकी वृद्धि होना रुक जाता है और वह विलास प्रिय नहीं बनता / (परिग्रहत्याग ब्रत) (6) दिव्रत-आजन्म तक भ्रमण करनेकी मर्यादा करना / अर्थात् चारों दिशाओंमें सीमा निर्धारित कर लेना कि इस सीमाका आजन्म उल्लघन न करेंगे / इस व्रतसे इन्द्रिय और मनकी