________________ (34) विनयसपन्नतासे भाव सत्य ज्ञान और सत्यज्ञानके देनेवाले गुरुका आदर सत्कार करना है। अर्थात सहृदयतासे-अंतःकरणसे सत्य ज्ञान व उनके दाता गुरुओंकी इज्जत करना चाहिये / इस व्रतसे सत्यज्ञानकी वृद्धि होती है / आत्मामें सत्यज्ञानका विश्वास दृढ होता है और उसकी प्रवृत्ति सत्यज्ञानकी ओर होने लगती है। (3) शील व्रतोंका अतीचार रहित पालन-शील शब्दसे केवल ब्रह्मचर्य व्रतका ग्रहण नहीं किया गया है किंतु जितने कारगोंसे आत्मिक भावोंका विकाश हो उन कारणोंका इस शील शब्दसे यहा पर ग्रहण है / आत्माके भावोंका विकाश और मानवीय चरित्रका गठन जिन कारणोंसे हो सकता है उनको तत्ववेत्ताओने बारह भेदोंमें विभक्त किया है / यहाँ पर इन मेदोंका भी वर्णन कर देना उपयोगी होगा। (1) प्रमादसे-बेपरवाहीसे प्राणियोंको मन, वचन, काय पूर्वक कष्ट न पहुँचाना / (अहिंसाव्रत) (2) सत्यबोलना, सत्य उपदेश देना, सत्य सलाह देना सदा सत्यके ही भक्त रहना, लोक निंदा, राज्य भय, इन्द्रिय विषयोंकी इच्छा-आशासे कभी सत्यसे न डिगना / (सत्यव्रत ) (3) जिस वस्तु पर अपना स्वत्व न हो चाहे वह चैतन्य हो या जड उस वस्तुको प्राप्त न करना और प्राप्त करने की इच्छा तक न करना ( अचौर्यव्रत ) (4) ब्रह्मचर्य धारण करना / ब्रह्मचर्य शक्तिको बढ़ानेवाला आत्म विकाशका कारण और मनुष्यको प्रामाविकता के उच्चसिंहासन पर बैठा देने वाला है। मनुष्य शरीरकी रक्षा वृद्धि एव शक्ति