________________ (31) शास्त्रों, सत्यके उपदेशोंके समीपी होना होगा मिथ्यात्वियोंके नहीं तब कहीं हम सत्यको पासकेंगे। परिग्रह, आरंम आदिको रखने और करनेवाले, संसारके पदार्थ ज्ञानसे रहित, रागी और द्वेषियोंको, पाखगुरु-मूढता डियोंको गुरु मानकर उनकी सेवा करना सत्कार करना गुरुमूढता है / यह मूढ़ता भी आत्मामें सत्यका प्रकाश नहीं होने देती / क्योंकि गुरु एक आदर्श है, जब आदर्श ही भ्रष्ट होगा, पदार्थ ज्ञानसे रहित होगा तो उसके कारणसे उसपर श्रद्धा रखनेवाली आत्मायें भी सत्यके समीप नहीं पहुँच सकतीं। शुद्धज्ञान-शुद्ध विश्वासको किसी भी अंशमें नहीं पा सकती। जन साधारणमें फैली हुई मूर्खता, मूर्खताके विश्वास लोकमूढता कहलाते हैं / इन विश्वासोंके अनुयायि होनेसे लोक-मूढता सत्यका प्रकाश नहीं होने पाता / क्योंकि दूसरोंकी देखादेखी करना, विना जाने बुझे जनसाधारणके विश्वासोंके अनुयायि हो जाना सिवा भेडियाधसानके क्या कहला कसता है / प्रायः जगतमें कई रीतियाँ धर्मके नामसे ऐसी प्रचलित हैं जिन्होंके मूल-जड़में कुछ भी तथ्य नहीं था पर अब वे धर्मकी मुख्य क्रियाये मानी जाती है। जैसे काशी करवट, सती होना, किसी निश्चित पर्वत परसे गिरना, ये सब एसी ही क्रियाओंमेंसे थीं। आत्मघात करना महान् पाप है, मनुष्यताके बाहिर है, आत्माकी कमजोरी है। उसमें लोकविश्वासके अनुसार धर्म मानना लोकमुदता कहलाती है, जोकि सत्यके मार्गसे बहुत दूर हैं और जो