________________ (25) करना अपने सत्यस्वरूपको अपनी संपत्तिको टुकरानेके समान समझता है / वह इन बधनोंमें रहता हुआ भी अपने आपको निर्बधन समझता है / जिस प्रकार कोई सज्जन पुरुष स्वोपार्जित कर्मके उदयसे जेलमें जाकर वेडियें पहनता है पर वह उन बेडियोंका अभिमान नहीं करता, बेडियोंका अभिमान उसके लिये अपमान समान है। इसी तरह अपने सत्यस्वरूपका जाननेवाला जातीयता आदि बेडियोंका अभिमान नहीं करता / ऐसा अभिमान उसकी दृष्टिमें अपमान है और सत्यज्ञानका द्योतक नहीं है / क्योंकि सत्यज्ञानी अपनी आत्माकी आत्मत्वके सिवाय कोई दूसरी जाति नहीं समझता। पहिलेका कोई बलवान् मनुष्य रोगशय्यापरसे उठने बैठनेकी ही शक्ति प्राप्त हो जानेपर क्या कभी उस बल-मद थोडेसे बलका अभिमान कर सकता है ? कमी नहीं / क्योंकि उसे तो अपने उस बलका ध्यान है जो उसकी निरोगावास्थामें होता है / इसी भाति जिस आत्माने अपने अनतज्ञानात्मक गुणको अच्छी तरह जान लिया है तो वह क्या कर्मोपार्जित कुछ बलसे अपनेको बलवान् समझ सकता है ? कमी नहीं / और यदि समझता है तो समझना चाहिये कि उसकी आत्माने सत्यस्वरूपको नहीं जाना / क्या आत्मा की ऋद्धियोंका कुछ पता है ? कुछ संख्या है। अथवा उनका अंत है ? नहीं / फिर अनंत ऋद्धि-मद ऋद्धियोंका धारक आत्मा दो, चार, छह आठ ऋद्रियाँ पाकर केसे संतोषित हो