________________ (24) है। मुझे कोई बधन रोक नहीं सकता। मेरा असल स्वरूप बध रहित है। ऐसा जानकर वह पिता, भाई आदिके कुलका मद करके अपने को मर्यादित और बंधनयुक्त नहीं बना सकता। क्योंकि ये सब कुटुम्बादि बेड़िया है / इन बेडियोंका अभिमान करना वह अपना अपमान समझता है / जैसे कि एक कोट्याधीश मनुष्य अपनेको लखपतियोंमें नहीं गिनवा सकता अथवा गिने जाने पर अपना अपमान समझता है इसी तरह अमर्यादित शक्तिवाला आत्मा कुल की मर्यादित सीमाको पाकर अभिमान नहीं कर सकता। और ऐसा अभिमान करना उसे अपना अपमानसा मालूम होता है, परंतु जिसने आत्माके सत्य स्वरूपको, ससारको, ससारके निमित्तों को नहीं जाना है वह कुलका अभिमान करने लगता है और वह अभिमान ही उसकी प्रगतिमें वाधक हो जाता है। क्योंकि उसकी दृष्टिके आगे प्राप्त कुलादिक ही आत्माकी अंतिमावस्था है, जभी वह उसका अभिमान करता है। क्योंकि न भूतो न भविष्यतिकी स्थिति प्राप्त होने पर ही अभिमान हुआ करता है। कुलके समान आत्माकी जाति भी कोई नहीं है / न वह ब्राह्मण है न वैश्य, न क्षत्री है न शूद्र जाति-मद न उसकी कोई जननी है और न जननी के रिस्तेदारही कोई उसके हैं। यह स्थिति है निश्चयावस्थाकी, पर व्यवहारमें सब कुछ है जाति भी है, वर्ण भी है, माता भी है, जनक, भाई आदि सब है / परतु सत्यज्ञानदर्शन बाला आत्मा अपनी निश्चयात्मक स्थितिको ही देखता है। उसकी दृष्टि इसी लक्ष्यपर जाकर टकराती है। अतएव वह जाति पक्षादिका अभिमान