________________ 2 निकांक्षित-संसारके क्षणिक सुखोकी चाहको रोकना / मविष्यमें जाकर जिस आत्माको इच्छा निरोध करना है, द्रव्यमन और भावमनका नाश करना है, इनकी चंचलतासे छूटना है उसे अभीसे-पहिले भवोंसे ही आकाक्षाओंको दबाना होगा जब कहीं मनकी चंचलतासे आगेके भवोंमें वह आत्मा विनिर्मुक्त होगी। तथा यह गुण जभी होगा जबकि आत्माका ज्ञान और उसपर अटल विश्वास सत्य होगा / क्योंकि जबतक श्रद्धानपूर्वक ससारके अन्य पदार्थों और आत्माके स्वरूपका ज्ञान नहीं हुआ तबतक कोई मी आत्मा ससारके सुखोंकी आकाक्षासे नहीं बच सकता / अतएव यह गण आत्माके शुद्ध दर्शनज्ञानका नमूना है। 3 निर्विचिकित्सा-घृणाका न होना / इस गुणके होनेसे एक तो आत्माके ज्ञानकी यह शुद्धता ज्ञात हो जाती है कि इसे पदार्थों के स्वरूपका यथार्थ ज्ञान हो गया है। दूसरे उसमेंसे घृणा निकल जानेपर कैसे भी घृणितसे घृणित प्राणियोंकी सेवा करनेमें नहीं हिचकिचाता और उसका आत्मा घृणाभावोंको भूलकर प्रेम मावोंका स्थान हो जाता है / इसी महागुणका वह अंतिम विकास है जिसके कि कारण महाआत्माकी महासभामें पशु पक्षी, आर्य म्लेच्छ, ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शद्र बिना किसी प्रकारकी रोक टोकके, बिना एक दूसरेसे घृणा और द्वेष किये आकर बैठ सकते हैं, हितकर सकते है और जिन्हें अपना स्वभावसिद्ध द्वेषभाव महाआत्माकी स्थिति तक भूल जाना पड़ता है / 4 अमूढ़ दृष्टि-मूढमावोंमें-अशुद्ध असत्य मावामें मन व. चन कायकी प्रवृत्तिका न करना / यह गुण निस आत्मामें होता है