________________ (14) और जहापर सासारिक सुखोंकी आकाक्षा है वहा कहना चाहिये कि अभी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ, इसलिये आकाक्षा भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान-अथवा दर्शनविशुद्धिमें एक दोष रूप है। विचिकित्सा-अर्थात् घृणा करना / जिसे वस्तुका स्वरूपक यथार्थ ज्ञान हो जाता है और उसपर अटल विश्वास हो जाता है वह घृणितसे भी घृणित वस्तुके सहवासमे रहता हुआ भी घृणा नहीं करता / परंतु जिसे इस प्रकारका ज्ञान और विश्वास नहीं हुआ है वह जरा भी दुर्गन्ध युक्त अथवा मैले वृणित पदार्थको देखता है तो नाक भौ सिकोड़ने अथवा छिः छि थु थुः करने लगता है / ज्ञानी विचारता है कि मेरे छि. छिः थुःथुः से जब कि इस पदार्थका स्वरूप बदल नहीं सकता तो मै क्यों अपनी आत्मामें विकार उत्पन्न करू / क्यों उसे घृणित समझकर अपनी आत्मामें घृणा भाव उत्पन्न करू ? जो घृणा करता है वह दिखलाता है कि अभी उसका पदार्थ ज्ञान अधूरा है-वह पदार्थोंके स्वरूपसे अजान है, उसका ज्ञानदर्शन अशुद्ध है। मृदृष्टि-मूढतामे मन-वचन-कायको लगाना / अर्थात् जो मत,जो विचार, जो धर्म, स्वाभाविक नहीं हैं प्राकृतिक नहीं है, निनमें मूढता-- मिथ्यापन पाया जाता है। जो वस्तु स्वभावको धर्म माननेवाले उदार सिद्धातोंसे पृथक् है उन विचारों, उन मतों, उन सिद्धान्तोंमें मन, वचन कायको लगाना बतलाता है कि अभी इस आत्माका ज्ञान सत्यतासे दूर है, क्योंकि अभी तक इसे पदार्थोंके स्वरूपका भान नहीं हुआ है और इसीलिये यह भी शुद्ध ज्ञानका एक दोष है।