________________ (7) स्थिरता-आत्मकता / अर्थात् आत्मभावका निरन्तर ध्यान करना, आत्ममय होजाना, विभावासे पराड्मुख रहना, मन बचन कायको विभावोंमें न जाने देकर आत्माभिमुख करना इसे कहते है पर्युपासना-पर्युषण-पज्जषण / यद्यपि आत्माके लिये आत्मिक जीवन सहन है, क्योंकि वह उसका स्वभाव है। जो जिसका स्वमाव होता है वह उसके लिये सहज होता है, तो भी आत्मा के सहवासमें जो तैनसादि शरीर निरंतर रहते हैं और जो सदा अपने स्वभाव रूप परिणमन करते रहते हैं उनका आत्मा से गाढ सबध होने के कारण नह (आत्मा) शरीरोंके स्वभाव को अपना स्वभाव समझता है, उमे निन स्वभावका स्मरणही नहीं होता / जिस प्रकार गणिकाके निरतर सहवास में रहनेवाला स्व स्त्रीका कदाचित् ही स्मरण करता है उसी प्रकार आत्मा भी शरीरोंके सहवासके कारण अपने स्वरूपको भूल जाता है और फिर उसे बड़े प्रयत्नोंसे अपने स्वरूपका स्मरण होता है। इस पर से तीन बाते निकलती हैं एक तो यह कि (1) स्वभाव में रमण करना यह स्वभाविक होने के कारण सहज है (2) परंतु विभावों के निरंतर सहवाससे और उनमें अपने जीवनके बहु भागको व्यतीत करता है ( 3 ) इससे आत्माको दुःख भोगना पड़ता है, जिस प्रकार कि हवामें उडनेके स्वभाववाला पक्षी यदि सरोवरमें मछलीके संग रहने लगे तो उसे दुःख होता है / यद्यपि मछली और पानी दुःख रूप नहीं है और न जगत में दुःख कोई पदार्थ है, केवल स्वभाव विरुद्ध प्रवृत्तिसे जो विचारों का अनुभव होता है