________________ (46) माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव // हिंसा बड़ा भारी पाप है, इससे पापकर्म बधते है और नरकादिक गति भोगनी पड़ती है। हिंसा से वर्मकार्य में रुचि नहीं होती वरश्च उपार्जित धर्मकार्यों और क्षमादि गुणों को भी क्षणमात्र में नष्ट करदेती है / जो मूर्ख और अज्ञानी विघ्न की शान्ति के लिए हिंसा करते हैं और यज्ञ करते है उनका विघ्न दूर नहीं होता और न उनको कल्याण प्राप्त होता है / ___दया ही धर्म का मूल है और अहिंसा ही धर्म का लक्षण है। अहिंसा ही जगत् की रक्षक और आनन्ददायक है और यही मुक्तिदाता और आत्माका हित करनेवाली है / सकल प्रकार के दानो मे अर्थात् अन्नदान, औषधिदान विद्यादानादि में अभयदान , ही प्रधान है / याद रखो कि अहिंसा परम धर्म है। दया धर्म का मूल है नरकमूल अभिमान / तुलसी दया न छोड़िये जवलग घटमें प्राण // अहिंसा से जो श्रेय प्राप्त होता है वह तप, स्वाध्याय अन्य कोटिदान और यमनियमादिकमे नही प्राप्त हो सक्ता / दयालु मनुष्यकी प्रशसा और महिमा अकथनीय है / अहिंसा विवेक को बढ़ाने- " वाली है आर सर्व प्रकार के कल्याणों की देनेवाली है। __ अन्त मे श्रीशुभचन्द्राचार्यजी कहते है कि जिस प्रकार तारागणों में चन्द्रमा है, देवों में इन्द्र, ग्रहों मे सूर्य, वृक्षों में कल्पवृक्ष, जलाशयों में समुद्र, पर्वतों में मेरु, और देवों में मुनियों के