________________ (43) "इस प्रकार सामान्य ज्ञान की अपेक्षातो ये पांचों ही ज्ञान एक है, तथापि कर्म के निमित्त से पांच प्रकार के भेद कहे गए / क्योंकि मति श्रुत अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान कर्मों के क्षयोपशम से होते है और केवलज्ञान आत्मा का निजखभाव है, जो घातियाकोंके सर्वथा क्षय होने से प्रगट होता है। यह ज्ञान अविनाशी और अनन्त है सदा जैसा का तैसा रहता है और इस को फिर कभी कर्ममल नही लगता है"। ___ अब श्रीशुभचन्द्राचार्यजी सम्यक् ज्ञानका माहात्म्य वर्णन करते मिथ्यारूपी अन्धकार और अज्ञानरूपी तिमिर ज्ञान ही से नष्ट होते है, ज्ञान ही भवमागर के दुःखों से पार करने के लिए एक उपयोगी और समर्थ नौका है, ज्ञान ही से इन्द्रियां और मन वशीभूत हो सक्ते है, ज्ञान ही से समस्त तत्त्वों का सार प्रकाशित होता है, ज्ञान के प्रभाव से सारे पाप दूर हो जाते है और ज्ञानरूपी अमि से सकल कर्म भस्म हो जाते है और मनुष्य कर्म के बन्धनों से छूट जाता है जैसा गीतामे लिखा है--'ज्ञानानि सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुते / हे भव्यजीव तू ज्ञान का आराधन कर, क्योंकि ज्ञान पापरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य के समान है मोक्षरूपी लक्ष्मी के निवास करने के लिए कमलके सदृश है, कामरूपी सर्पको दमन करने के लिए मन्त्र के तुल्य है, चित्तरूपी हस्तीको वश में करने के लिए सिंह के समान है; कष्टरूपी बादलों को तितर बितर करने के लिए पवन का काम देता है, सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाश करनेका