________________ (42) (ख) क्षयोपशम-जो ज्ञान मनुष्य तथा जीवों को कर्मों के नष्ट वा दुर्बल होने से होता है / यह छै प्रकार का है। 1. अनुगामि-जो दूसरे जन्ममें भी साथ जाता है / 2. अननुगामि-जो दूसरे जन्ममें साथ नही जाता / 3. वर्द्धमान-जो सम्यग् दर्शनादि गुणों के बढने से बढ़ता रहता है। 1. हीयमान-जो सम्यग् दर्शनादि गुणों के घटने से घटता चला जाता है। 5. अवस्थित-जो जितना उत्पन्न हुआ था केवलज्ञान की प्राप्ति तक उतना ही रहता है। 6. अनवस्थित-जो सम्यग् दर्शनादिकी न्यूनाधिकता के साथ घटता बढ़ता है। 4. मन पर्यय ज्ञान-इस के द्वारा दूसरों के मन के भाव विदित हो जाते है / इस के दो भेद है, (क) ऋजुमति (ख) विपुलमति / इनसे दूसरोंके सकल्प विकल्प और मन देह और जिह्वा से की हुई सीधी और टेढ़ी बाते जानली जाती है। पहला ज्ञान अर्थात् ऋजुमति प्राप्त होकर छूट भी जाता है और दूसरा अर्थात् विपुलमति प्राप्त हुए पीछे फिर नही छूटता / 5. केवलज्ञान-इस ज्ञान से सारे द्रव्यों के पाय जाने जाते है, त्रिकाल और त्रिलोक का समस्त वृत्तान्त विदित होजाता है / यह सर्वोपरि और अतीन्द्रिय ज्ञान है / इस के कोई भेद नहीं हैं और यह ज्ञान योगीश्वरों को ही होता है।