________________ (28) सबसे मुख्य रक्खा है क्योंकि श्रद्धा के बिना सम्यग्ज्ञान नहीं हो सक्ता / सच पूछो तो श्रद्धा एक प्रकार की नीव है और ज्ञान घर है, जैसे घर बिना नीव के नही बन सक्ता वैसे ही सम्यग्ज्ञान बिना श्रद्धा के नहीं आ सक्ता, इस कारण सम्यग्ज्ञान के लिए प्रथम श्रद्धा का होना आवश्यक है / वस्तुत श्रद्धा धर्म की नीव है और सकल धर्मकार्य में श्रद्धा अग्रणी है। फिर यह देखना चाहिये कि मिथ्यात्व में श्रद्धा करने से मिथ्याज्ञान और सत्य में श्रद्धा करने से सत्यज्ञान प्राप्त होगा / इस का निर्णय पीछे से हो सक्ता है कि हमारा ज्ञान सत्य है या मिथ्या जैसे कि नीव पड़ने के पीछे ही घरका बोदा या पक्का होना सिद्ध हो सका है / इस लिए श्रद्धा और सम्यग्ज्ञान एक दूसरे पर निर्भर है / फिर उस श्रद्धापूर्वक सम्यग्ज्ञान के अनुसार चलने को सम्यक् चारित्र कहते है / यदि ज्ञान ठीक नहीं है तो उस पर चलना या उस के अनुसार काम करना भी ठीक नही होगा / और बिना चारित्र के निरे ज्ञान का होना व्यर्थ है और चारित्र बिना श्रद्धा के बहुधा फलदायक नही होता इस लिए दर्शन ज्ञान और चारित्र आपस में सम्बद्ध है। दर्शन के अर्थ आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा को साक्षात् करनेके भी है जैसा लिखा है-योगिनो आत्मना आत्मन्येव वात्मानं पश्यन्ति। आप आपमें आपको देखे दर्शन सोय / जानपनो सो ज्ञान है थिरता चारित होय // सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की एकता ही