________________ ( 29 ) से हटाकर ब्रह्म अर्थात् परमात्मा के ध्यान में लगा / जैसा भत. हरिजीने निम्न लिखित श्लोक में कहा है: आयुः कल्लोललोलं कतिपयदिवसस्थायिनी यौवनश्रीराः सङ्कल्पकल्या धनसमयतडिद्विभ्रमा भोगपूराः। कण्ठश्लेषोपगूढं तदपि च न चिरं यत्प्रियाभिः प्रणीतं ब्रह्मण्यासक्तचित्ता भवत भवभयाम्भोधिपारं तरीतुम् // जीवतत्त्व। लक्षण-जीव चेतन है, ज्ञानमय है, अमूर्त है, अर्थात् इसे आंखोसे नही देख सकते है और स्वदेहपरिमाण है / अर्थात् जैसी छोटी बडी देहको पाता है, उसका आकार छोटा बडा होजाता है / इसीका नाम प्राणी देही आत्मा है / यही जीव मिथ्यात्वमें फँसकर वेदनीय आदि कर्म करता है, अपने किये हुए कर्मोंके अनुसार दु ख सुख भोगता है और क्मों करके तीनों लोक नरक खर्ग और निगोदमें भ्रमण करता रहता है / यही जीव रत्नत्रय को प्राप्त करके यह विचारता है कि मै एक हूं, सब से अन्य हूं और कुटुम्ब धनादिकों में से कोई भी अन्त समयमें मेरा संगी और सहायी नही होगा / इस प्रकार सकल कर्मोंका नाश करके और ज्ञानरूप होकर निर्वाण वा मोक्षपदको प्राप्त कर लेता है / और वहा अनन्त कालके लिये स्थिर, और अनन्त सुख, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, तथा अनन्त शक्तिसम्पन्न हो जाता है। __महत्त्व-आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, विशुद्ध और परमेष्ठी (परम पदमें स्थित ) है और सार्व है अर्थात् अपनी सर्वज्ञता और सर्व