________________ (26) सर्परूपी टेढ़ी चालको सर्वथा त्याग दिया है और इस प्रकार संसारसे विरक्त होकर वनके किसी एकान्त और शुद्ध स्थानमें चले गए हैं और शरद ऋतुके चन्द्रमा की कान्तिसे चमकते हुए गगनमण्डलके कारण शोभायमान और सुन्दर रात्रिको अपने कल्याणके लिए केवल आत्मा के ध्यानमें मग्न होकर बिताते है / जैसा भर्तृहरिजीने अपने वैराग्यशतकमें प्रकट किया है: अहो धन्याः केचित्रुटितभवनबन्धव्यतिकरा वनान्तेऽचिन्वंतो विषमविषयाशीविषगतिम् / शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलगगनाभोगसुभगां नयन्ते ये रात्रिं सुकृतचयचिन्तैकशरणाः॥ संसारी जीव प्रमादसे मूढ है और क्रोध मोहादिकों के कारण अनेक दुःखों में फंसे हुए है, घरके धधोंमें लिप्त होकर वे अपने मनको वशमें नही कर सकते, अनेक प्रकारके कलहोंसे चित्तमें दु.खी रहते है, स्त्रियोंके फदेमें पडकर रातदिन धन कमाने और विषयभोग करनेमें लगे रहते है / ऐसे 'हुनवह परीत इव' गृहस्थ आश्रममे रहकर जहा चारों ओरसे क्रोध द्वेष ईर्ष्या विरोध आदि अग्निकी ज्वालाएं उठ रही है चित्तकी शान्ति और उत्तम ध्यान कहा हो सकता है ? इसी लिए गृहस्थावस्थामें उत्तम ध्यानका निषेध लिखा है। विपरीत इसके जिन्होंने गृहस्थधर्म छोड भी दिया है परन्तु तत्त्वोंके खरूपका भले प्रकार निर्णय नहीं किया है अर्थात् जिनका श्रद्धान मिथ्या है, वे मुनि होकर भी उत्तम ध्यानमें सिद्धि नही प्राप्त कर सकते / मिथ्यादृष्टियों को जब वस्तुका ठीक 2