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( ३ )
आत्माका नाश जानना संक्लेश मरण करना सो कुमरण है सो मैं मिध्यादर्शनका प्रभाव करि देहकूं ही आपा मानि अपना ज्ञानदर्शनवरूपका घात करि अनंत परिवर्तन किये सो अब भगवान वीतराग सों ऐसी प्रार्थना करूं हूं जो मेरे मरणके समय मैं वेदनामरण तथा आत्मज्ञानरहित मरण मत होहू क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग जन्ममरणरहित भये हैं तातैं मैं हू सर्वज्ञ वीतरागका शरणसहित संक्लेशरहित धर्मध्यानतैं मरण चाहता वीतरागहीका शरण ग्रहण करूं हूं ॥ १ ॥ अब मैं अपने आत्माकं समझाऊं हूं, कृमिजालशताकीर्णे जर्जरे देहपअरे । भज्यमानेन भेतव्यं यतस्त्वं ज्ञानविग्रहः ॥
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अर्थ - भो आत्मन् कृमिनिके सैकड़ां जालनिकरि भरवा अर नित्य जर्जरा होता यो देहरूप पींजरा इसकूं नष्ट होतें तुम भय मत करो जातैं तुम तो ज्ञानशरीर हो । भावार्थ - तुमारा रूप तो ज्ञान है जिसमैं ये सकल पदार्थ उद्यतरूप हो रहे हैं अर अमूर्तीक ज्ञान ज्योतिःस्वरूप अखंड अविनाशी ज्ञाता द्रष्टा है अर यह हाड़ मांस चामड़ामय महादुर्गंध विनाशीक देह है सो तुमारा रूपतैं अत्यंत भिन्न है कर्मके वशर्तें एक क्षेत्र में अवगाहन करि एकसे होय तिष्ठै है तो हू तुमारे इनके