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(४) अत्यंत भेद है अर यो देह पृथ्वी जल अग्नि पवनके परमाणुनिका पिंड है सो अवसर पाय बिखर जायगा तुम अविनाशी अखंड ज्ञायकरूप होय इसके नाश होनेते भय कैसैं करो हो ॥२॥ अब और हू कहैं हैंज्ञानिनभयं भवेत्कस्मात्प्राप्ते मृत्युमहोत्सवे। खरूपस्थः पुरंयाति देही देहान्तरस्थितिः॥
अर्थ-भो ज्ञानिन् ! कहिये हो ज्ञानी तुम को वीतरागी सम्यग्ज्ञानी उपदेश करैं हैं जो मृत्युरूप महान् उत्सवको प्राप्त होते काहेरौं भय करो हो यो देही कहिये आत्मा सो अपने स्वरूपमैं तिष्ठता अन्य देहमैं स्थितिरूप पुरकू जाय है यामैं भयका हेतु कहा है ? भावार्थ-जैसैं कोऊ एक जीर्णकुटीमैतै निकसि अन्य नवीन महलकू प्राप्त होय सो तो बड़ा उत्सवका अवसर है तैसैं यो आत्मा अपने स्वरूपमैं तिष्ठता ही इस जीर्ण देहरूप कुटीकू छोड़ि नवीन देहरूप महलको प्राप्त होते महा उत्साहका अवसर है यामैं कुछ हानि नहीं जो भय करिये अर जो अपने ज्ञायकखभावमैं तिष्ठते परका अपणासकरि रहित परलोक जावोगे तो बड़ा आदरसहित दिव्य धातु उपधातुरहित वैक्रियकदेहमैं देव होय अनेक महर्द्धिकनिमैं पूज्य महान देव होवोगे अर जो यहां भयादिक करि अपना ज्ञानखमा