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________________ सू. ८-४-४४७] स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् १७५ वल्लह-विरह-महादहहो थाह गवेसइ नाइ ।। नावइ । पेक्खेविणु मुहु जिण-वरहो दीहर-नयण सलोणु ॥ नावइ गुरु-मच्छर-भरिउ जलणि पवीसइ लोणु ॥ जणि । चम्पय-कुसुमहो मज्झि सहि भसलु पइट्ठउ । सोहइ इन्दनील जणि कणइ बइठ्ठउ ॥ जणु । निरुवम-रसु पिएं पिएवि जणु ॥ ४४४ ॥ लिङ्गमतन्त्रम् ॥ ८१४।४४५ ॥ अपभ्रंशे लिङ्गमतन्त्रं व्यभिचारि प्रायो भवति । गय-कुम्भई दारन्तु ।। अत्र पुंलिङ्गस्य नपुंसकत्वम् । . अब्मा लग्गा डुङ्गरिहिं पहिउ रडन्तउ जाइ । जो एहा गिरि-गिलण-मणु सो किं धणहे धणाइ । अत्र अब्भा इति नपुंसकस्य पुंस्त्वम् । पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु ल्हसिउं खन्धस्सु । तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किजउं कन्तस्सु ॥ अत्र अन्त्रडी इति नपुंसकस्य स्त्रीत्वम् ।। सिरि चडिआ खन्ति प्फलई पुणु डालई मोडन्ति । __ तोवि महद्दम सउणाहं अवराहिउ न करन्ति ॥ अत्र डालई इत्यत्र स्त्रीलिङ्गस्य नपुंसकत्वम् ॥ ४४५ ॥ शौरसेनीवत् ॥ ८।४।४४६॥ अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्यं भवति ॥ सीसि सेहरु खणु विणिम्मविदु खणु कण्ठि पालंबु किदु रदिए विहिदु खणु मुण्डमालिए जं पणएण तं नमहु कुसुम-दाम-कोदण्डु कामहो ॥ ४४६ ॥ व्यत्ययश्च ॥८॥४॥४४७॥ प्राकृतादिभाषालक्षणानां व्यत्ययश्च भवति ॥ यथा मागध्यां “तिष्ठश्चिष्ठ"
SR No.010651
Book TitlePrakrit Vyakaranam
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorParshuram Sharma
PublisherMotilal Laghaji
Publication Year
Total Pages343
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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