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( ३२ ) इस वजह से कालसी टोपरा इ० के लेख पूर्व के धौली जौगड से खास भिन्न नही । पूर्व मे जो ध्वनिभेद सार्वत्रिक है वह कालसी टोपरा मे वैकल्पिक है । ऐसी एक दो विशेषताएँ जरूर है पूर्व मे र का ल,-श्रो का-ए, शब्दान्तर्गत- जैसे कलेति (करोति) सार्वत्रिक है, कालसी टोपरा मे ये वैकल्पिक है। __पश्चिमोत्तर के लेखों को छोडकर सब जगह श प स का स होता है, तदनुसार इस विभाग मे भी स ही मिलता है। कालसी मे परिस्थिति अनोखी है, वहाँ श प का भी प्रयोग मिलता है। पहले नौ लेखो मे कालसी मे गिरनार की तरह श ष की जगह स ही मिलता है, एक दो अपवाद को छोडकर । उसके बाद अनेक स्थान पर शष का प्रयोग भी शुरू होता है । यह प्रयोग इतना अनियत्रितता से होता है, कि मूल सस्कृत के श प स से भी उसका कोई सम्बन्ध नहीं। उसके कुछ उदाहरणमूर्धन्य प-पियदपा, यषो, अपपलापवे (अपपरिस्रव )
उषुटेन, उषटेन, उशता, हेडिषे ( ईदृश ) धमषंविभागे, धंमषबधे, षम्यापरिपति (सम्यक् प्रतिपत्ति ), पुषुषा, दाशभतकषि, अठवषाभिसितपा (-स्य ), पियप (-स्य,) पानषतपहषे (प्राणशतसहस्त्रे), शतषहष (शतसहस्त्रमात्र), अनुषये (अनुशय ), धमानुशथि (धर्मानुशिष्टि-),
षमचलियं ( समचर्या,) इ० इ०।। तालव्य श-पशवति (प्रसूते ), शवपाशडान (सर्वपापण्डानां)
शालवढि ( सारवृद्धि ), शिया ( स्यात् )
पकलनशि (प्रकरणे ) इ० इ० - श ष के इन अनियत्रित प्रयोगो से विद्वानो ने ऐसा निर्णय किया है कि कालसी मे सामान्य प्रचार स का ही मानना चाहिये, ये श और • ष लेखक के (लहिया के) लिपिदोष से आ गए है। आगे चलकर, इन श कार और स कार की चर्चा करनी होगी।
पूर्व के लेखो मे स्वार्थ क का प्रयोग बढता जाता है। काला सी टोपरा के लेखो मे यह प्रयोग अधिक होता है । यहाँ के लेखो की एक और विशेषता क और ग का तालुकरण है, खास तौर से क का