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( ३१ ) जिसको ल्यूडर्स यथार्थ प्राचीन शौरसेनी कहते है-की तुलना अशोक के गिरनार के लेख के साथ हो सकेगी। मध्यदेश की भाषा के कुछ लक्षण हमको गिरनार मे मिलते है, ओर गिरनार के साथ अश्वघोष की भाषा का साधय वैधये कितना है उसका पता लग सकता है। मध्यदेश के कुछ लक्षण सर्वसामान्य है - अस् का ओ, श, ष, स का स । अश्वघोष की शौरसेनी मे ज्ञ का ब्ब होता है, यद्यपि उत्तरकालीन वैयाकरणो ने प्रण का विधान किया है, किन्तु गिरनार मे भी ब मिलता है कृतवता । र युक्त सयुक्त व्यजनो का सावण्य अश्वघोप की शौरसेनी मे भी होता है । मध्यदेश को सामान्य प्रक्रिया ऋ > इ अश्वघोष मे मिलती है, गिरनार मे नही । सयुक्त व्यजनो मे व्य > व्व होता है, गिरनार मे नही । ष्ट, ष्ठ का ह होता है, गिरनार मे स्ट हो रह जाता है । मध्यदेश की विशिष्टता क्ष > ख अश्वघोष की शौरसेनी मे मिलती है, गिरनार मे सामान्यतया छ मिलता है। अश्वघोष के नाटको की भाषा प्राचीन है ही, इससे इसको प्राचीन शौरसेनी कहना ठीक हो है । यह प्राचीन शौरसेनो इस अवस्था मे है जहा एकाध अपवाद को छोडकर स्वरातर्गत व्यजनो का घोषभाव- त का द, जो बाद मे शौरसेनी का प्रधान लक्षण हो जाता है- मिलता नहीं । प्राय सब स्वरान्तर्गत व्यजन अविकृत रहते है । इस प्राचीन शौरसेनी को मथुरा के लेखो से-जो शौरसेनी का प्रभव स्थान हो सकता है-तुलना करना मुश्किल है, किन्तु यह अभ्यास स्वतत्र चितनका विषय तो है ही। इन लेखो की भाषापर से सस्कृत का आवरण हटा कर-जो वहां की बोली पर लादा गया है- जब उसका अभ्यास होगा, तब इन हकीकतो पर अधिक प्रकाश जरूर डाला जा सकेगा।
अशोक के पूर्व के लेखो के साथ केवल पूर्व के ही नहीं किन्तु मगध के पश्चिम मे लिखे गए कुछ लेखो को भी गिनना होगा । हमने आगे इस बात की चर्चा की है कि जहा मगध की राजभाषा दुर्बोध न थी, वहां के शिलालेख प्राय पूर्व की ही शैली में लिखे गए। खास तौर से मध्यदेश मे जो लेख मिलते है उनसे यह बात स्पष्ट होती है । वहा के राज्याधिकारी अशोक की राजभाषा से सुपरिचित होगे इससे मध्यदेश की छाया उन लेखो पर खास मालूम नहीं होती, और इससे मध्यदेश की बोली के उदाहरण हमको अशोक के लेखो मे नही मिलते ।