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मान लीजिए कि, अर्वाचीन भारतीय आर्य भाषा के पुरोगामी स्वरूप बिलकुल विद्यमान है, और अर्वाचीन भाषाओ से ही गुजराती, मराठी, बंगला आदि का परस्पर संबंध और व्याकरण समझाना है । किसी भी भारतीय आर्य भाषा का अभ्यास करते समय इतना तो आसानी से तय हो जायगा कि यह इन्डोयुरोपियन गरण की भाषा है । उदाहरण-हिदी उसके सर्वनाम के रूप, सज्ञा और क्रिया को प्रक्रिया इत्यादि का इन्डोयुरोपियन से संबंध लगाया जा सकता है, किन्तु हिदी कोही केन्द्र मे रख कर अन्य नव्यभारतीय भाषाएँ समझाने मे बहुत सी व्याकरण की घटनाएँ बिना समझाये ही रह जायेंगी । जैसे कि हिदी मे नान्यतर नहीं है, मराठी, गुजराती, कोकणी और मरवाही मे नान्यतर है, गुजराती मे सज्ञा है घोडो, हिदी मे है घोड़ा, हिदी का भविष्यकाल है 'फरूँगा', गुजराती का 'करीश', ऐसी अनेक घटनाएँ होगी जो हिदी से नही समझाई जा सकती । इसके लिये तो इन सब भाषा की कोई पूर्वावस्था की कल्पना करनी ही पड़ेगी जैसे कि नान्यतर, जो प्राचीन आर्यभाषा मे था वह एक गण मे गुजराती, मराठी, कोकणी भद्दरवाही मे बच गया, और दूसरे गण में जैसे कि हिदी, बगला आदि मे बचा नही । प्राचीन स्वरूप की कल्पना से ही अर्वाचीन भाषा का इतिहास समझाया जा सकेगा । भारतीय आर्य भाषा मे सद्भाग्य से यह प्राचीन स्वरूप विद्यमान है, इसलिए कल्पना की आवश्यकता नही, किन्तु इन्डोयुरोपियन के विषय मे इससे उलटा है । उसकी बोलियाँ तो विद्यमान है पर प्राचीन स्वरूप विद्यमान नही है, वहाँ प्राचीन स्वरूप कि पुनर्घटना (Hypothetical recons-_ truction ) से ही उसकी बोलियो का व्याकरण समझाया जा सकता है । इस प्रयोजन से ही गत शताब्दियों में और इस शताब्दी के प्रारंभकाल मे तुलनात्मक और ऐतिहासिक व्याकरण की पद्धति आगे बढो, स्वरूप निश्चित किया गया । इस तरह से जो स्वरूप निश्चित किया गया है उसकी मर्यादाएँ अवश्य है, और वह कभी नही भूलनी चाहिये | इयु शब्द सिर्फ तज्जन्य बोलियो के व्याकरण और ध्वनिस्वरूप समझाने की एक फार्म्युला मात्र है, इयु का एक वाक्य भी उन शब्दो से बनाया नही जा सकता ।
इमे न तो कहानियाँ लिखी जा सकती है, न तो वाक्य लिखे जा सकते है । ऐसे प्रयत्न करना बेजिम्मेदार काम गिना जाता है, और