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छोड़कर भामहादि के ग्रन्थों में प्रमुख रूप से गुण, अलंकार, दोष आदि के विवेचन की परम्परा रही है। गुण तथा अलंकार काव्य के उपकारक हैं तो दोष अपकारक । दोषों का विवेचन करके इनसे सावधान रहने का निर्देश सभी आचार्यों ने दिया है-इस दृष्टि से सभी आचार्य कविशिक्षा विषय से सम्बद्ध हो गए हैं। भामह, दण्डी, वामन, रूद्रट, कुन्तक, महिमभट्ट, मम्मट आदि सभी आचार्यों ने दोषविवेचन किया है। दण्डी काव्य में अल्पदोष की भी उपेक्षा न करने का निर्देश देते हैं। महिमभट्ट का दोषविवेचन निश्चित रूप से आज के तथा भावी कविमार्ग पर जाने के इच्छुकों के अनुशासन के लिए है। इस बात को उन्होंने दोष वर्णन प्रसंग के अन्त में स्वीकार किया है। इसी प्रकार सभी आचार्यों का दोषविवेचन
निस्सन्देह कवियों के निर्देश तथा शिक्षा के लिए है। कवि को किसी न किसी रूप में काव्यनिर्माण के
सम्बन्ध में निर्देश देने के कारण काव्यशास्त्र के सभी आचार्यों के ग्रन्थों में कविशिक्षा का विषय अवश्य
भलकता है।
किन्तु कविशिक्षा के इस अल्परूप में परिदृष्ट विषय को नवीन रूप बाद में राजशेखर के समय
से प्राप्त हुआ। राजशेखर के प्रमुख ग्रन्थ 'काव्यमीमांसा' में ही कविशिक्षा को अतिरिक्त पूर्ण विषय का विस्तार प्राप्त हुआ। कवि के जीवन में शिक्षा के महत्व को स्वीकार करने के कारण ही आचार्य राजशेखर ने काव्यविद्या गुरूओं एवं काव्यविद्यास्नातक शिष्यों की काल्पनिक पूर्व परम्परा का उल्लेख
काव्यमीमांसा के प्रारम्भ में ही किया है। राजशेखर ने काव्यशास्त्र के पारम्परिक विषयों से अतिरिक्त
विषय को अपने विवेचन का विषय बनाया-कवि कैसे बना जा सकता है, कवि बनने के प्रारम्भिक चरण में तथा काव्यरचना करने से पूर्व कवि को किन किन विषयों के ज्ञान की आवश्यकता है-कवि बनने के साधन, शिक्षार्थियों के भेद, कवियों के भेद, कवि की आवश्यकताएं, कवि की दिनचर्या एवम् व्यवहार, काव्य हेतुओं का विस्तारपूर्वक विवेचन, काव्यरचना से पूर्व ध्यान रखने योग्य बातें, एक शिष्य का पूर्ण कवि बनने का विकासक्रम, अभ्यास के उपाय, देश काल एवं कविसमय का विवेचन, काव्यनिर्माण सम्बन्धी अन्य विभिन्न निर्देश आदि विषय काव्यशास्त्रीय जगत के लिए अधिकांशत:
1 इदमद्यतनानां च भाविनां चानुशासनम् लेशतः कृतमस्माभिः कविवारुरुक्षताम् । 126।
(द्वितीय विमर्श) व्यक्तिविवेक (महिमभट)