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उन्होंने उचित नहीं माना है इसका तात्पर्य है, कि उन्हें कवि के लिए काव्यविद् गुरू की आवश्यकता मान्य है।1
इस प्रकार काव्यनिर्माण में अभ्यास की अनिवार्यता स्वीकार करने के साथ ही कवि के लिए शिक्षा की आवश्यकता का भी निराकरण नहीं किया जा सकता। विभिन्न आचार्यों की दृष्टि में इसका महत्त्व कम या अधिक भले ही हो सकता है। प्रतिभा के साथ-साथ ही कवि को व्याकरण, शब्दकोष छन्दज्ञान, अलङ्कार, काव्यशास्त्र, साहित्य, कला, विज्ञान आदि का तथा संसार में मनुष्यों एवं पशुओं के व्यवहार, वृक्षों और प्राकृतिक तत्वों का ज्ञान होना चाहिए। देश, काल, कविप्रसिद्धि तथा रस, भावों, से सम्बद्ध निर्देश भी कवि को प्राप्त होना चाहिए। इन सब विषयों के ज्ञान को कविशिक्षा के अन्तर्गत ही
स्वीकार किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कविशिक्षा के लिए ही निर्मित ग्रन्थों में कवि के लिए
बताए गए अभ्यास के उपाय तथा काव्यनिर्माण सम्बन्धी अन्य निर्देश कवि शिक्षा के ही विषय हैं।
संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रारम्भिक काल से ही काव्यशास्त्रीय तथा नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों से कवियों को काव्यनिर्माण से सम्बद्ध विभिन्न निर्देश मिलते रहे । इसलिए सभी आचार्य किसी न किसी रूप में कविशिक्षा सम्बन्धी विवेचन से सम्बद्ध रहे। भरतमुनि का नाट्यप्रयोगों का पूर्ण ज्ञान देने वाला नाट्यशास्त्र नाट्यों की रचना की तथा उसके अभिनय की शिक्षा देता है । 'नाट्यशास्त्र' में नाट्यरचना सम्बन्धी विभिन्न निर्देश निश्चित रूप से कवि को दिए गए हैं। 'नाट्यशास्त्र' की व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त ने अपनी टीका में एक स्थान पर कहा भी है एतच्च कवेः शिक्षार्थम् ? काव्यशास्त्र के सैद्धान्तिक विषयों (जो अप्रत्यक्ष रूप से कवि शिक्षा से सम्बद्ध हैं) के अतिरिक्त भामह आदि आचार्यो
के ग्रन्थों में कवि की शिक्षा से प्रत्यक्ष रुप से सम्बन्ध रखने वाले निर्देश भी प्राप्त होते हैं जैसे
-शिक्षा प्राप्तगिरः कवेः --------------131 कर्वीत साहित्यविदः सकाशे श्रुतार्जनं काव्यसमुद्भवाय न तार्किकं केवलशाब्दिकं वा कुर्याद् गुरूं सूक्तिविकास विनम्।
कविकण्ठाभरण (क्षेमेन्द्र) (प्रथम सन्धि) 2 वर्ष प्रचारार्थमाह हैमवता इति हिमवति बाहुल्येनैषां गतिरित्यर्थः एवं सर्वत्र......... एतच्च कवे: शिक्षार्थम
पृष्ठ - 203, (नाट्यशास्त्र त्रयोदश अध्याय की) अभिनवगुप्त की टीका