________________
[86]
है। इसका यही तात्पर्य माना जा सकता है कि श्रेष्ठ काव्य भले ही प्रतिभा के अभाव में न रचा जा सके परन्तु काव्य तो केवल व्युत्पत्ति और अभ्यास की सहायता से भी निर्मित हो सकता है- पूर्ण कवित्व भले ही न प्राप्त हो किन्तु विद्धद्गोष्ठी में काव्य सुनाने योग्य कवित्व की कवि को अभ्यास द्वारा प्राप्ति दण्डी को मान्य है। आचार्य वामन के अनुसार काव्य के तीन अंग हैं लोक, विद्या और प्रकीर्ण । अभियोग, वृद्धसेवा तथा अवेक्षण इसी प्रकीर्ण के अंग हैं1-निरन्तर प्रयत्न रूप अभ्यास, काव्यज्ञ गुरू की सेवा, तथा पद को रखने, हटाने की बुद्धि रूप अवेक्षण आदि का सम्बन्ध कवि के क्रमिक विकास तथा उसके द्वारा किए गए काव्यरचना के अभ्यास से है।
आचार्य क्षेमेन्द्र के अनुसार प्रारम्भ से पूर्णता प्राप्त करने तक शिक्षार्थी के पाँच क्रमिक विकास होते हैं-उन्हीं के नाम पर 'कविकण्ठाभरण' के पाँच अध्याय हैं । उनमें प्रथम है अकवि को कवित्वप्राप्ति। ज्ञान और अभ्यास के दूसरे विकास क्रम को क्षेमेन्द्र ने शिक्षा कहा है-इस अवस्था में कवि को पद्य बन्धन की क्षमता प्राप्त होती है। आचार्य अभिनवगुप्त ने सहृदयों के हृदय में भी काव्यार्थ स्फुरण के लिए काव्याभ्यास तथा पूर्वजन्म के पुण्य से प्राप्त प्रतिभा आदि हेतुओं को आवश्यक माना है। आचार्य विश्वेश्वर के अनुसार श्रम, नियोग, क्लेश तथा प्रतिभा काव्यसामग्रियाँ है। क्लेश से काव्यरचना के उद्योग रूप अभ्यास से ही तात्पर्य है।
1 लोको विद्या प्रकीर्णञ्च काव्याङ्गानि (1/3/1)
लक्ष्यज्ञत्वमभियोगो वृद्धसेवाऽवेक्षणम् प्रतिभानमवधानञ्च प्रकीर्णम् (1/3/11)
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति (वामन) तत्राकवे: कवित्वाप्तिः शिक्षा प्राप्तगिर: कवे: चमत्कृतिश्च शिक्षाप्तौ गुणदोषोद्गतिस्ततः । 3 । पश्चात् परिचयप्राप्तिरित्येते पञ्च संधयः समुद्दिष्टाः क्रमेणैषां लक्ष्यलक्षणमुच्यते। 4। (प्रथम संधि)
कविकण्ठाभरण (क्षेमेन्द्र) 3. क्रमोल्लंघने हि सति नाटकादिविरचयताम् महान्तः प्रमादपभ्रंशाः भवन्ति । नहि सर्वो
वाल्मीकिर्व्यास: कालिदासो भट्टेन्दुराजी वा, तेषामपि प्रागजन्मार्जित क्रमाभ्याससमुदितपाटवोत्पादितः ------ज्ञानातिशयः। (2/293)
अभिनव भारती (अभिनव गुप्त)