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________________ तृतीय अध्याय 'काव्यमीमांसा' में काव्यहेतु तथा कविशिक्षा काव्यमीमांसा में प्रतिभा एवम् व्युत्पत्ति का विस्तार-लौकिक जगत् के प्राणियों को अलौकिक आनन्द की पराकाष्ठा तक पहुँचाने वाले काव्य का सृष्टा 'कवि' कहलाता है। सरस्वती का महारहस्य काव्यरूप में ही कवि की वाणी द्वारा व्यक्त होता है। वाणी से प्रस्फुटित होने वाली यह काव्यरूप सरस्वती कवि की अलौकिक प्रतिभा विशेष को व्यक्त करती है, किन्तु अलौकिक आनन्ददायक काव्य का सृष्टा कवि काव्यसृजन कुछ हेतुओं द्वारा ही कर पाता है। अत: काव्यशास्त्र के प्राय: सभी आचार्यों ने काव्यनिर्माण की क्षमता के उत्पादक साधन के रूप में तीन अनिवार्य काव्यहेतुओं का अपने ग्रन्थों में विवेचन किया है। इन काव्यहेतुओं के महत्व की दृष्टि से यदि विचार करें तो प्रतिभा अथवा शक्ति का सर्वोच्च स्थान सभी आचार्यों को स्वीकार है। फिर भी कवित्व की पराकाष्ठा उसे ही प्राप्त होती है जो प्रतिभा सम्पन्न है, शास्त्र और काव्यादि के ज्ञान द्वारा व्युत्पन्न है और जो सतत काव्यनिर्माण का अभ्यास भी करता है। इस प्रकार काव्य के तीनों हेतु समष्टि रूप से ही काव्य के कारण हैं, काव्यनिर्माण के लिए उनकी अनिवार्यता के विषय में प्रायः काव्यशास्त्र के सभी आचार्य एकमत हैं। श्रेष्ठ काव्य तो तीनों के सम्मिलन से ही निर्मित होता है। सौन्दर्यमय, सहृदयहृदयाह्लादक काव्य की रचना के लिए-जिसमें नीरस अंश का सर्वथा त्याग किया गया हो और केवल सरस अंश का ही ग्रहण किया गया हो-आचार्य रुद्रट तीनों काव्यहेतुओं की समष्टि को ही आवश्यक मानते हैं ।। आचार्य दण्डी, मम्मट और विद्याधर आदि आचार्य भी काव्यहेतुओं को सम्मिलित रूप में ही काव्य का कारण स्वीकार करते हैं, पृथक् रूप में नहीं। आचार्य दण्डी के ग्रन्थ में इस विषय में किञ्चित् 1. तस्यासारनिरासात्सारग्रहणाच्च चारुणः करणे त्रितयमिदं व्याप्रियते शक्तिद्युत्पत्तिरभ्यासः। (1/14)(काव्यालङ्कार-रुद्रट)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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