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करके उसके वेपविन्यास, विलासविन्यास एवम् वचनविन्यास की रूपरेखा प्रस्तुत की है। काव्यपुरुप को आकर्षित करने के लिए साहित्यविद्यावधू ने जिस वेष, विलास एवम् वचन को अपनाया वे ही क्रमशः प्रवृत्ति, वृत्ति तथा रीति हैं। काव्यपुरुषाख्यान यह सिद्ध करता है कि काव्य में श्रेष्ठता क्रमिक रूप सं ही आती है। वेप, नृत्यगान तथा वचनों का भी क्रमशः संस्कार होता जाता है। रीति, वृत्ति, प्रवृत्ति के क्रमिक विकास एवम् परिष्कार को प्रस्तुत करने वाली कथा इनकी उत्तरोत्तर श्रेष्ठता को प्रतिपादित करती
काव्य के दो भेद हैं-दृश्य काव्य तथा श्रव्य काव्य। वेषविन्यास रूप प्रवृत्ति तथा विलास विन्यास रूप वृत्ति का प्रमुख उपयोग दृश्य काव्य के लिए ही है। किन्तु वचन विन्यास (रचनाशैली अथवा रीति) की तो दृश्य तथा श्रव्य दोनों प्रकार के काव्यों में समान उपादेयता है।
काव्यशास्त्र में पदों की संघटना अथवा पद विन्यास प्रणाली रीति है। इसी को कहीं मार्ग, कहीं संघटना एवम् कहीं रीति नाम प्रदान किया गया है। 'रीति' शब्द गत्यर्थक रीङ् धातु से व्युत्पन्न हुआ है। आचार्य राजशेखर 'वचनविन्यासक्रम' को रीति कहते हैं 2 आचार्य वामन ने रीति को काव्य की आत्मा के रूप स्थापित किया। 'विशेष पद रचना' उनकी 'रीति' है। रीति की परिभाषा में विशिष्ट' पद उनके अनुसार गुण सम्पन्नता का द्योतक है 3 पदों की वह रचना, जिसमें गुणों की उपस्थिति अवश्य हो रीति है। काव्य का शोभाकारक धर्म गुण है। आचार्य वामन शब्दगत तथा अर्थगत सौन्दर्य को ही महत्व देते हैं। आचार्य दण्डी ने भी गुणों को तथा आचार्य रुद्रट ने समास को रीति के मूल में स्वीकार किया है।
1 'वैदर्भादिकृतपन्थाः काव्ये मार्ग इति स्मृतः। रीङ्गताविति धातोः सा व्युत्पत्या रीतिरुच्यते' । 27।।
सरस्वतीकण्ठाभरण (द्वितीय परिच्छेद) 2 'वचनविन्यासक्रमो रीतिः'
काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय) 3 'रीतिरात्मा काव्यस्य'
(1/2/6) 'विशिष्ट पदरचना रीतिः'
(1/2/7) 'विशेषो गुणात्मा'
(1/2/8)
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति (वामन) 4. इति वैदर्भमार्गस्य प्राणाः दशगुणाः स्मृताः। एषां विपर्ययः प्रायो दृश्यते गौडवर्त्मनि। काव्यादर्श (दण्डी) (1/42)
नानां वृत्तिर्द्वधा भवति समासासमासभेदेन वृत्तेः समासवत्यास्तत्र स्यू रीतर्यास्तस्त्रः वृतरसमासाया वैदर्भी रीतिरेकेव
16। काव्यालङ्कार (रुद्रट) द्वितीय अध्याय
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