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यह तो स्पष्ट है कि रसोचित शब्दार्थ विन्यास में ही शब्दार्थ साहित्य होता है। आचार्य कुन्तक
इसी को परस्परसाम्यसुभगावस्थान'1 तथा आचार्य राजशेखर 'शब्दार्थों का यथावत् सहभाव' कहते हैं। श्रेष्ठ काव्य तथा काव्यपाक का लक्षण भी आचार्य राजशेखर तथा उनकी पत्नी अवन्तिसुन्दरी की दृष्टि में
'रसोचितशब्दार्थसक्तिनिबन्धन' है? आचार्य राजशेखर के पूर्ववर्ती आचार्य आनन्दवर्धन ने स्वीकार किया
था कि औचित्य ही रसपरिपोष का एकमात्र रहस्य है। वाच्य, वाचक का रसादि औचित्य से उपयोग करना महाकवि का प्रधान कर्म है। दृश्य तथा श्रव्य काव्यों में दर्शकों तथा श्रोताओं के हृदय में रसोन्मीलन के लिए परम अपेक्षित तत्व औचित्य है। किसी भी प्रकार का अनौचित्यपूर्ण प्रयोग रस प्रतीति में बाधक बन जाता है । यथा दृश्य काव्य की रसप्रतीति में अनुचित वेशभूषा, कथोपकथन तथा मञ्चरचना बाधा डालते हैं तो अनुचित पद प्रयोग श्रव्य काव्य को रसप्रतीति कराने में अक्षम बना देते हैं। रस प्रतीति में बाधक होने पर शब्द और अर्थ उस विशिष्ट साहित्य से दूर हो जाते हैं, जो काव्य में अभीष्ट है। ऐसी अवस्था को आचार्य कुन्तक साहित्यविरह कहते है तथा आचार्य महिमभट्ट नीरसकाव्य को कवि का महान् दोष स्वीकार करते हैं तथा रसाभिव्यक्ति परक कविव्यापार को ही काव्य कहते हैं ।
क्षेमेन्द्र ने 'औचित्य' की विस्तृत रूप में चर्चा की है।
1. 'मम सर्वगुणौ सन्तौ सुहृदाविव सङ्गतौ परस्परस्य शोभायै शब्दार्थों भवतो यथा'
(वक्रोक्तिजीवित, प्रथम उन्मेष, पृष्ठ - 25) 2 'रसोचितशब्दार्थसूक्तिनिबन्धनः पाक:'
काव्यमीमांसा - (पञ्चम अध्याय) 3 'अनौचित्याट्टते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणम् प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा' (ध्वन्यालोक - तृतीय उद्योत) 'वाच्यानां वाचकानां च यदौचित्येन योजनम्। रसादिविषयेणैतत् मुख्यं कर्म महाकवेः'
(ध्वन्यालोक - तृतीय उद्योत) 4 'नीरसस्तु प्रबन्धो यः सोऽपशब्दो महान् कवेः'
व्यक्तिविवेक (द्वितीय विमर्श) 'कविव्यापारो हि विभावादिसंयोजनात्मा रसाभिव्यक्त्यव्यभिचारी काव्यमुच्यते
(प्रथम विमर्श) व्यक्तिविवेक (महिमभट्ट)