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'काव्यमीमांसा' के कविसमविवेचन से पूर्णतः प्रभावित रहे। केशवमिश्र, वाग्भट तथा विश्वनाथन भी
कविसमयविवेचन को अपने ग्रन्थों में स्थान दिया। यद्यपि इन आचार्यों का विवेचन आचार्य राजशेखर के
विवेचन से कुछ अंशों में पृथक् रहा। केशवमिश्र तथा विश्वनाथ ने राजशेखर के कविसमयों के अतिरिक्त देशादि की संख्या, ऋतुओं के वर्ण्यविषयों तथा वृक्षदोहद का भी कविसमय में अन्तर्भाव किया। वाग्भट
ने तो कविसमय के अन्तर्गत देशादि की संख्या का ही विवेचन किया।
दूसरों की काव्यरचना का किसी भी रूप में आधारग्रहण काव्यहरण है, जिसकी महत्ता काव्यहेतु अभ्यास के संदर्भ में स्वीकृत है। काव्यहरण को काव्यशास्त्रीय विषयों में अन्तर्निहित कर
विवेच्य बनाने का श्रेय सर्वप्रथम आचार्य राजशेखर को ही है। अनेक परवर्ती आचार्यों ने तो पूर्णत: उसी
रूप में इस काव्यहरण क्रिया का उपजीवन नाम से अपने ग्रन्थों में वर्णन किया। आचार्य राजशेखर का
अनुसरण कर हेमचन्द्र, वाग्भट, क्षेमेन्द्र, भोजराज, विनयचन्द्र, पण्डितराज जगन्नाथ आदि के ग्रन्थों में भी इस विषय की विवेचना हुई, किन्तु राजशेखर के विवेचन का स्वरूप परिपूर्ण तथा सुनियोजित था, अत: परवर्ती आचार्यों के ग्रन्थों का इस विषय से सम्बद्ध विवेचन नवीन विचारों की प्रस्तुति नहीं कर सका। आचार्य कुन्तक का विचित्रमार्गी कवि अनूतन शब्दों, अर्थों का उक्तिवैचित्र्य से नवीन रूप में उल्लेख करता है। आचार्य हेमचन्द्र का उपजीवन पूर्णतः आचार्य राजशेखर के विवेचन पर आधारित है। क्षेमेन्द्र के उपजीवन का सम्बन्ध भी अभ्यासी कवि से है। परवर्ती आचार्यों में हेमचन्द्र, वाग्भट, भोजराज, क्षेमेन्द्र, विनयचन्द्र आदि आचार्यों ने दूसरों के पदग्रहण, पादग्रहण, उक्तिग्रहण आदि के द्वारा कवि का रचनाकार्य में प्रवेश होना स्वीकार किया है। पण्डितराज का समाधिगुण अर्थोपजीवन तथा अर्थमौलिकता
पर आधारित है। विश्वेश्वर की 'साहित्यमीमांसा' में वर्णित उक्तिभेद-छायोक्ति तथा घटितोक्ति का
सम्बन्ध हरण से ही है। विनयचन्द्र ने भी अभ्यासहेतु काव्यार्थचर्वण तथा परसूक्तग्रहण को महत्वपूर्ण माना। यह सभी आचार्य उपजीवन को स्वीकार करके भी आचार्य राजशेखर के ही समान श्रेष्ठकाव्य का
सम्बन्ध मौलिकता से ही मानते थे।
कवि के लिए देशकालविवेचन को व्यवस्थाबद्ध स्वरूप प्रदान करते हुए आचार्य राजशेखर ने