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________________ [294] दिशाओं के विभाग : दिशाओं के विभाग की अवधि अन्तर्वेदी अथवा मध्यदेश को माना गया है। किन्तु आचार्य राजशेखर अन्तर्वेदी में भी कान्यकुब्ज को दिग्विभाग की अवधि स्वीकार करते हैं। यह दिशा निर्धारण विशेष स्थान को अवधि मानकर स्वीकार किया गया है। सामान्यतः तो दिशाएँ अनियत होने से दिग्विभाग की अनिश्चितता है।। दिशाओं की संख्या दिशाओं की संख्या का वर्णन करने में कवि अपनी इच्छा के अधीन हैं। कहीं चार दिशाओं के, अन्यत्र आठ दिशाओं तथा दस दिशाओं के भी उल्लेख हैं 2 चार दिशाएँ :- प्राची, अवाची, प्रतीची और उदीची। आठ दिशाएँ :- ऐन्द्री, आग्नेयी, याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, कौबेरी तथा ऐशानी। यह नामकरण दिक्पालों के नाम पर आधारित हैं। दस दिशाएँ :- ऐन्दी आदि आठ तथा ब्राह्मी (ऊर्ध्व) और नागीया (अध:) यह दस दिशाएँ हैं ३ 1. विनशनप्रयागयोगङ्गायमुनयोश्चान्तरमन्तर्वेदी। तदपेक्षया दिशो विभजेत 'इति आचार्याः। तत्रापि मूलमवधीकृत्य इति यायावरीयः। 'अवधिनिबन्धनमिदं रूपमितरत्त्वनियतमेव' इति यायावरीयः। (काव्यमीमांसा - सप्तदश अध्याय) 2. सर्वमस्तु, विवक्षापरतन्त्रा हि दिशामियत्ता। (काव्यमीमांसा - सप्तदश अध्याय) 3. 'प्राच्यवाचीप्रतीच्युदीच्यः चतस्त्रो दिश' इत्येके। ऐन्द्री, आग्नेयी, याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, कौबेरी, ऐशानी चाष्टौ दिश' इत्येके। ' ब्राह्मी नागीया च द्वे ताभ्यां सह दशैता' इत्यपरे। (काव्यमीमांसा - सप्तदश अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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