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हैं— इस प्रकार सात लोकों की भी धारणा है। सात लोक और सात वायु स्कन्ध मिलाकर चौदह लोकों की भी मान्यता है। चौदह भुवनों की संख्या सात पातालों से मिलकर इक्कीस हो जाती है।
लोकों की संख्या का स्पष्ट स्वरूप हिन्दी अभिनवभारती के प्राचीन ब्रह्माण्ड विभाग में भी प्राप्त होता है।
हिन्दी अभिनवभारती में प्राचीन ब्रह्माण्ड विभाग :
प्राचीन भूगोल शास्त्रियों ने सारे ब्रह्माण्ड को सात भागों में विभक्त किया था, जिनको वे सप्त लोक कहते थे। इस विभाजन में भूमण्डल के मध्य में एक अत्यन्त विशाल और समुन्नत पर्वत की स्थिति मानी गई है। इस पर्वत को उन्होंने सुमेरु पर्वत का नाम दिया है। लोकों के विभाजन में इस सुमेरु पर्वत का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। समुद्रतल और उसके भी नीचे जहाँ तक सृष्टि की स्थिति है वहाँ से लेकर भूमण्डलवर्ती इस सुमेरु पर्वत के सर्वोच्च शिखर पर्यन्त भूलोक की सीमा मानी जाती है । सुमेरु पर्वत के सर्वोच्च शिखर से ऊपर ध्रुवतारा तक अन्तरिक्ष लोक की सीमा है। यह दूसरा लोक है। इसके ऊपर पाँच लोक और हैं। इन सबको मिलाकर 'स्वर्लोक' इस एक सामान्य नाम से कहा जाता है।
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इस प्रकार (1) भूलोक, (2) भुवर्लोक या अन्तरिक्ष लोक ( 3 ) स्वर्लोक इन तीन लोकों या भुवनों के रूप में जो ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त विभाजन किया गया है वह 'त्रिभुवन' नाम से विख्यात है और स्वर्लोक के मध्य आने वाले पाँचों लोकों की गणना अलग-अलग करने पर जो ब्रह्माण्ड का सात भागों में विभाजन हो जाता है उसको 'सप्तलोक' के नाम से कहा जाता है।
स्वर्लोक के अन्तर्गत पाँच लोक इस प्रकार से स्थित हैं कि भूलोक और अन्तरिक्ष लोक के बाद जब स्वर्लोकों की सीमा प्रारम्भ होती है तो उनमें सबसे पहिले महेन्द्रलोक आता है। इसे स्वर्लोकों में सबसे पहिले होने से मुख्य रूप से स्वर्लोक कहा जाता है। इसके बाद चौथा प्राजापत्य लोक आता है इसको महर्लोक नाम से कहा जाता है। इसके ऊपर जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक नाम से तीन ब्रह्मलोक आते हैं। इन सबको मिलाकर सात लोक हो जाते हैं। इस प्रकार ब्रह्माण्ड का सूक्ष्मतम विभाग तीन भवनों के रूप में और उसकी अपेक्षा अधिक विस्तृत विभाग सात लोकों के रूप में किया गया है।