________________
सप्तम अध्याय
काव्यमीमांसा में देश तथा काल विवेचन
देश तथा काल के सम्यक् ज्ञान के अभाव में कवियों की मूढ़ता और विवशता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, इसी कारण काव्यनिर्माण से पूर्व उन्हें देश तथा काल का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यदि कवि देश और काल का उचित निरीक्षण नहीं करते तो उनका काव्य रस और भाव के अनुकूल नहीं हो सकता । भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में देश और काल का भली भांति निरीक्षण करने के पश्चात् ही नाट्य प्रयोग करने का निर्देश दिया है।1 देश और काल के औचित्य के प्रति सावधान न रहना काव्य के दोषों के अन्तर्गत स्वीकृत है। आचार्य भामह के अनुसार देश, काल, कला, लोक आदि विरोधी वर्णनों की दोषसंज्ञा है जो देश में द्रव्यसम्भूति हो उसका उपदेश न करना द्रव्यसम्भूति दोष है। षड् ऋतुओं के भेद से काल छः प्रकार का है। उसके विरुद्ध वर्णन काल विरोधी दोष कहलाता है । 2 आचार्य रुद्रट की धारणा है कि केवल रसपरतन्त्र होकर देश काल आदि से नियमित पदार्थों में स्वरूप परिवर्तन उचित नहीं है । अन्यथा वर्णनों में निर्दोषत्व केवल उतना ही स्वीकार किया जा सकता है, जितना सत्कविपरम्पराओं में उल्लिखित हो । 3 आचार्य राजशेखर के परवर्ती आचार्य भोजराज ने भी देशकाल के विरुद्ध वर्णन को प्रत्यक्ष विरोधी दोष की संज्ञा दी है। देशसम्पदा अर्थात् पुर, उपवन, राष्ट्र, समुद्र, आश्रम
|
1. एवं कालं च देशं च समीक्ष्य च बलाबलम् ।
नित्यं नाट्यं प्रयुञ्जीत यथाभावम् यथारसम् । 161
2. देशकालकलालोकन्यायागमविरोधि च प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तहीनं दुष्टं च नेष्यते । 2। या देशे द्रव्यसम्भूतिरपि वा नोपदिश्यते तत् तद्विरोधि विज्ञेयं स्वभावात् तद्यथोच्यते । 29 । षण्णामृतूनां भेदेन कालः षोढेव भिद्यते तद्विरोधकृदित्याहुर्विपर्यासादिदं यथा । 311
नाट्यशास्त्र - सप्तविंश अध्याय
काव्यालङ्कार (भामह) चतुर्थ परिच्छेद
3. सर्वः स्वं स्वं रूपं धत्तेऽर्थो देशकालनियमं च । तं च न खलु बध्नीयान्निष्कारणमन्यथातिरसात् 1 71 सुकविपरम्परया चिरमविगीततयान्यथा निबद्धं यत् । वस्तु तदन्यादृशमपि बध्नीयात्तत्प्रसिद्धयैव 18 |
काव्यालङ्कार (रुद्रट) - सप्तम अध्याय