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सामान्यतः 'राजचर्या' के अन्तर्गत 'राजसभा' से सम्बन्धित राजा के कार्यकलापों का अध्ययन
प्रस्तुत किया जाता है किन्तु कवि शिक्षासम्बन्धी ग्रन्थ में इस विषय के विवेचन का कारण राजशेखरकाल का राज्याश्रित कवियों से अपेक्षाकृत अधिक सम्बद्ध होना है। 'काव्यमीमांसा' में वर्णित 'राजचर्या' राजा की दिनचर्या से नहीं, किन्तु उसकी काव्यसभाओं की गतिविधियों से सम्बद्ध है। कवि के काव्य के प्रचार प्रसार में तथा कवि को प्रोत्साहन देने में प्रत्येक युग में राज्यव्यवस्था महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, इस प्रकार साहित्यिक उन्नति भी अधिकांशत: राज्यव्यवस्था पर कुछ अंशों में निर्भर रहती है।
आचार्य राजशेखर के काल में साहित्य तथा शास्त्र में रूचि रखने वाले, कविगुणों से युक्त
विद्वान राजाओं ने अपने राज्य में महती काव्यसभाओं के रूप में 'कविसमाज' की स्थापना की। इन
काव्यसभाओं में काव्य की उत्कृष्टता की परख का महान् कार्य सम्पन्न किया जाता था। आचार्य राजशेखर
ने स्वीकार किया था कि राजा को कविसमाज की स्थापना करनी चाहिये, क्योंकि यदि राजा कवि हो
तो उसकी प्रजा भी कवि बन जाती है। समय-समय पर काव्यगोष्ठियों का आयोजन कराना राजा का
कर्तव्य था। राज्य में आयोजित काव्यगोष्ठियों का सभापतित्व प्रायः राजा स्वयम् ही करते थे 2 भावकों
तथा राजा के सम्मिलित प्रयास से काव्य का मूल्याङ्कन किया जाता था। यदि स्वामी भावक न हो तो
उस कवि के काव्य पर आश्चर्य है।
राज्याश्रित कवि के रूप में आचार्य राजशेखर ने राजाओं द्वारा संचालित विद्वद्गोष्ठियों का
प्रत्यक्ष दर्शन किया था। वह स्वयम् प्रतिहारवंशी महेन्द्रपाल और उसके पुत्र महीपाल के राजसभासद
1. राजा कवि: कविसमाज विंदधीत। राजनि कवौ सर्वो लोकः कविः स्यात्। स काव्यपरीक्षायै सभां कारयेत्।
(काव्यमीमांसा- दशम अध्याय) 2 तत्र यथासुखमासीनः काव्यगोष्ठीमप्रवर्तयेत भावयेत्परीक्षेत च।---------
इत्थं सभापतिर्भूत्वा यः काव्यानि परीक्षते यशस्तस्य जगद्वयापि स सुखी तत्र तत्र च ॥ (काव्यमीमांसा - दशम अध्याय) 3 यामी मित्रं च मन्त्री च शिष्य वाचार्य एव च । कविर्भवति हि चित्रं किं हि तय मापकः॥
(काव्यमीमांसा - चतुर्थ अध्याय)