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वामन के मत का खण्डन किया था। शब्दहरण तथा रस परिपाक के उनके महत्वपूर्ण मत 'काव्यमीमांसा' में आचार्य राजशेखर द्वारा उल्लिखित हैं। अपनी विदुषी पत्नी के कारण भी उन्हें विशिष्ट ख्याति प्राप्त हुई थी।2 आचार्य राजशेखर की कर्मभूमि-कन्नौज :
आचार्य राजशेखर के समय में प्रतिहारों का साम्राज्य-विस्तार हो चुका था। उनके विशाल साम्राज्य आर्यावर्त की तत्कालीन राजधानी 'महोदय' नगर था। महोदय कान्यकुब्ज का ही दूसरा नाम है। आचार्य राजशेखर कान्यकुब्ज के गुर्जरप्रतिहारवंशी नरेश महेन्द्रपाल के गुरू थे। महेन्द्रपाल के पुत्र महीपाल के दरबार में भी आचार्य राजशेखर रहे थे। महीपाल समस्त आर्यावर्त का महाराजाधिराज था। यद्यपि आचार्य राजशेखर विदर्भ देश के महाराष्ट्र थे किन्तु कन्नौज के काव्यप्रेमी राजा दूसरे देशों के कवियों को भी आश्रय तथा सम्मान देते थे। महेन्द्रपाल की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्रों में परस्पर विरोध होने पर कुछ समय के लिए कन्नौज की स्थिति बिगड़ गई। महीपाल का शासन भी सुदृढ़ न रह सका, तव आचार्य राजशेखर युवराजदेव 'केयूरवर्ष' के दरबार में कलचुरी चले गए। किन्तु आचार्य राजशेखर का प्रिय स्थान कन्नौज ही था। इसी कारण वह युवराजदेव की सभा में भी स्वयं को कन्नौज के महेन्द्रपाल
का गुरू कहने में गौरवान्वित अनुभव करते रहे। उन्होंने कन्नौज में ही 'कर्पूरमञ्जरी' तथा 'बालरामायण' की रचना महेन्द्रपाल के समय में की थी। कलचुरी के युवराजदेव 'केयूरवर्ष' के आश्रय में उन्होंने 'विद्धशालभञ्जिका' की रचना की। जब महीपाल ने पुनः अपने शासन को सुदृढ़ किया, कन्नौज की स्थिति भी सुधर गई, तब आचार्य राजशेखर ने कन्नौज लौटकर अपने इसी प्रियनगर में
1. "इयमशक्तिर्न पुनः पाक: "इत्यवन्तिसुन्दरी"
काव्यमीमांसा - (पञ्चम अध्याय) 2 सद्विज्ञानं कुलतिलकतां याति दारैरूदारैः फुल्ला कीर्तिभ्रंमति सुकवेर्दिक्षु यायारस्य।"
(बालरामायण, प्रथम अङ्क, श्लोक-6) 3 "रघुकुलतिलको महेन्द्रपाल: सकलकलानिलयः स यस्य शिष्यः।
(विद्धशालभञ्जिका-16)