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सामग्री के संधान, चयन आदि में सहायक बनकर काव्यनिर्माण कराती है, किन्तु भावक भावयित्री प्रतिभा की सहायता से कवि द्वारा भोगे गए, शब्दों में अभिव्यक्त किए गए अपने सम्मुख प्रस्तुत अनुभव का पुनरनुभव करके रसास्वाद करता है। कवि के शब्दों, अर्थों से पूर्णतः भिन्न नवीन शब्दों, अर्थों आदि के प्रतिभास की उसे आवश्यकता नहीं होती।
कवि की कारयित्री प्रतिभा के कारण लौकिक विषय काव्य के क्षेत्र में आते ही अलौकिक बन जाते हैं। उनकी इस अलौकिकता को काव्य की मूलवर्ती प्रेरणा को भावक अपने हृदय में अनुभव करता है। अपनी प्रतिभा द्वारा भावक कवि की ही कल्पना से साक्षात्कार करता है। कवि की प्रतिभा नवनवोन्मेषकारयित्री है, भावक की प्रतिभा नवनवोन्मेषभावयित्री । प्रतिभा दोनों के लिए परमावश्यक
है ।
भावक की भावयित्री प्रतिभा उसे काव्यरचना में कम, काव्य की कसौटी में अधिक सक्षम नाती है । वह अर्थतत्व, भावतत्व, सभी गुणदोषों का रसतत्व तथा अलङ्कार तत्व आदि का विश्लेषण करके कवि के काव्य को उत्कृष्टता, अपकृष्टता की कसौटी पर कसता है और अपने सौन्दर्यबोध से काव्य को महिमामंडित भी करता है।
काव्यनिर्माण समालोचना के अभाव में व्यर्थ होता है। अतः कवि के साथ भावक की उपस्थिति अनिवार्य है। कविव्यापार भावक द्वारा ही फलित होता है, क्योंकि यदि काव्य का प्रचार प्रसार न हो तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है। कवि संसार के लिए काव्यरचना करता है तो भावक उसको संसार में उसके गुणदोषमय रूप में प्रचारित करता है। इस प्रकार वह कवि के अभिप्राय का भावन करके उसके श्रम को सफल बनाता है। भावक की परीक्षा के बाद ही काव्य की महिमा का प्रचार होता है तथा कवि को सम्मान की प्राप्ति होती है।
एक पक्ष यह स्वीकार करने वाला भी मिलता है कि कवि में भी भावयित्री प्रतिभा होनी चाहिये, क्योंकि कवि अपने काव्य की आलोचना में सक्षम हो, तभी उसका काव्यनिर्माणकार्य पूर्णता को प्राप्त करता है। किन्तु आचार्य राजशेखर ने महाकवि कालिदास का मत उद्धृत करते हुए स्वीकार किया है कि कवित्व तथा भावकत्व स्वरूप भेद तथा विषयभेद के कारण पृथक् हैं। एक पत्थर सुवर्ण उत्पन्न