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देकर भी कविशिक्षा के ही संदर्भ में नवीन वस्तु के उत्पादन का प्रयत्न आचार्य क्षेमेन्द्र ने आवश्यक बतलाया है। उनका विचार है कि जो दूसरों से कुछ ग्रहण किए बिना अपने ही उन्मेष से कवि बन सके
उसे अन्य किसी के उपजीवन की आवश्यकता नहीं होती। वह तो स्वयं ही सबका उपजीव्य बन जाता
है। आचार्य विश्वेश्वर की साहित्यमीमांसा ग्रन्थ में कवि अपने दर्शन गुण के कारण ऋषियों के समान ही
द्रष्टा कहा गया है क्योंकि वह नवीन अर्थ तथा बन्ध का दर्शन करके उनका मनस् में उद्भावन करके
काव्यरचना करता है।
पंडितराज जगन्नाथ भी काव्य में अर्थमौलिकता तथा अर्थोपजीवन दोनों को ही स्वीकार करते
हैं-इस विषय से सम्बद्ध उनका समाधिगुण अपनी ही विशेषता रखता है। इस समाधिगुण का उन्होंने काव्य में वर्णित अर्थ से सम्बन्ध माना है। समाधिगुण के दो पक्षों में से एक का सम्बन्ध-'यह अर्थ जिसका मैं वर्णन करने जा रहा हूँ, पहले किसी के द्वारा वर्णित नहीं हुआ है' कवि के इस विचार रूप अर्थ मौलिकता से जोड़ा जा सकता है तथा द्वितीय पक्ष का सम्बन्ध उपजीवन से।
शब्दों, अर्थों, उक्तियों में नवीन-नवीन देखना तथा कुछ मौलिक उल्लेख करने में समर्थ होना
महाकवित्व या श्रेष्ठ कवित्व का वैशिष्ट्य है। इस प्रकार आचार्य राजशेखर की दृष्टि में भी महाकवित्व
या श्रेष्ठ कवित्व की कसौटी कवि की रचना में उसकी प्रतिभा के प्रकर्ष से प्रतीत होने वाली नवीनता
तथा मौलिकता है। भले ही वह किसी मौलिक भाव अथवा विषय पर रची गई रचना हो अथवा दूसरे से शब्द अर्थ लेकर उसमें स्वप्रयत्न से नवीनता तथा मौलिकता का समावेश करते हुए रचित कविता।
पूर्ववर्णित अर्थ केवल अभ्यासी कवि के काव्य में ही नहीं, किन्त महाकवियों के काव्यों में भी प्रायः
पाए जाते हैं, किन्तु उनकी महानता इसी में है कि वे प्राचीन शब्दों, अर्थो में भी नवीनता लाते हैं और उन्हें मौलिक बनाकर अपनी ही रचना के रूप में प्रदर्शित करने में समर्थ होते हैं। रचना का भाव अथवा
अर्थ कहीं और से लिया गया हो फिर भी रचना नवीन तथा मौलिक हो यह कवि की सामर्थ्य का ही
1. 'अवणितपूर्वोऽयमर्थः पूर्ववर्णितच्छायों वेति कवेरालोचनं समाधिः।'
(प्रथमानन) रसगड़ाधर (पण्डितराज जगन्नाथ)