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हेतुव्यत्ययः
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किसी कवि ने एक अर्थ को जिस कारण से ग्रहण किया है, बिल्कुल उसी अर्थ को किसी अन्य
कारण से ग्रहण करना हेतुव्यत्यय है।
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सडक्रान्त :
कहीं देखे गए किसी अर्थ को कहीं दूसरे स्थान पर लागू कर देना, 2 कहीं देखी गई बिल्कुल उसी अर्थ रूप वस्तु को कहीं दूसरे स्थान में सङ्क्रमित कर देना सङ्क्रान्त नामक भेद है।
सम्पुट :
जहाँ दो रचनाओं के भिन्न-भिन्न भावों को मिलाकर साथ ही एक रचना में बिल्कुल उसी रूप में ग्रहण किया जाता है उस अर्थहरण प्रकार को सम्पुट कहते हैं ।
प्रतिबिम्बकल्प अर्थ के इन सभी भेदों में अर्थ दूसरों से लिया जाता है, बिल्कुल उसी रूप में अर्थ को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना इस हरण की विशेषता है कवि अर्थ में किञ्चित् भी परिवर्तन या संस्कार तो नहीं करता, केवल वाक्यविन्यास अपना करता है। कवि की वही रचना काव्य कही जा सकती है जिसमें कवि की रचना चमत्कारकारी रूप में प्रतिभासित हुई हो। इस प्रकार के भेद में ऐसा कुछ भी नहीं होता। इस आधार पर अर्थ लेकर रचना करने वाला कवि नहीं कहला सकता। केवल वाक्यविन्यास सीखने की प्रारम्भिक कवि की अवस्था में इस भेद से सम्भवतः कुछ सहायता मिल सकती हो, अन्यथा अर्थहरण का यह प्रकार त्याज्य है।
आलेख्यप्रख्य:
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दूसरे कवि द्वारा निबद्ध अर्थ के ग्रहण रूप अन्ययोनि अर्थ का द्वितीय भेद आलेख्यप्रख्य कहलाता है। प्राचीन भाव लेकर ही उसका इस प्रकार संस्कार किया जाए कि वह प्राचीन भाव से भिन्न प्रतीत होने लगे - इस प्रकार के अर्थग्रहण को आलेख्यप्रख्य कहते हैं जिस प्रकार किसी वस्तु का
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कारणपरावृत्या हेतुव्यत्ययः
दृष्टस्य वस्तुनोऽन्यत्र सङ्क्रमिति: सङ्क्रान्तम् उभयवाक्यार्थोपादानं सम्पुट
किथताऽपि पत्र संस्कारकर्मणा वस्तु भिन्नवद्भाति।
तत्कथितमर्थचतुरैरालेख्यप्रख्यमिति काव्यम् ॥
काव्यमीमांसा
(द्वादश अध्याय) में सभी का उल्लेख ।