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________________ [215] अर्थों को ही अपना सकता है-प्रतिबिम्बकल्प को अपनाना निकृष्टकार्य है, क्योंकि उसमें अर्थ बिल्कुल वही होता है, किञ्चित् परिवर्तित नहीं। जो अर्थ दूसरे कवियों की रचनाओं से ग्रहण किए जाते हैं उनमें दो रूप सामने आते हैं, एक जिसका बिल्कुल पूर्व अर्थ के रूप में ही ग्रहण किया जाता है तथा दूसरा जिसका किश्चित् संस्कार के साथ ग्रहण किया जाता है- इनमें से प्रथम प्रतिबिम्ब कल्प अर्थ कहलाता है और दूसरा आलेख्य प्रख्य। प्रतिबिम्बकल्प : प्रतिबिम्बकल्प अर्थ में पश्चात् कवि की रचना में पूर्व कवि के समस्त भाव उसी रूप में विद्यमान होते हैं-केवल वाक्य विन्यास में भिन्नता होती है। जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्बित होने वाला चेहरा वही होता है, उसी रूप में दिखाई देता है किञ्चित् भिन्न रूप में नहीं-उसी प्रकार जब किसी कवि के अर्थ को कोई अन्य कवि केवल वाक्यविन्यास में भेद करके उसी रूप में ग्रहण करता है तो बाद में निबद्ध किया गया अर्थ पूर्व अर्थ के रूप में ही सहृदयों को प्रतीत होता है-नवीन रूप में उसे स्वीकार करना सम्भव नहीं होता। पूर्व अर्थ का दूसरा अर्थ प्रतिबिम्ब मात्र होता है-जैसे प्रतिबिम्ब वस्तु से भिन्न प्रकार का न होकर वस्तु जैसा ही होता है, उसी प्रकार बिल्कुल वही अर्थ निबद्ध किए जाने पर पूर्वनिबद्ध अर्थ रूप में ही स्वीकार किया जाता है। इस कारण किसी कवि के काव्य के बिल्कुल उसी अर्थ को लेकर उसे केवल भिन्न प्रकार के वाक्य में निबद्ध करके प्रस्तुत करने का कवि के लिए औचित्य नहीं है। अर्थग्रहण का यह प्रकार कवियों के लिए ग्राह्य नहीं है, फिर भी इस प्रकार का अर्थ ग्रहण किस-किस प्रकार से किया जाता है यह निर्देश राजशेखर ने अर्थहरण के इस प्रकार के भेदों सहित किया है-अभ्यासी कवियों को इस प्रकार के अर्थहरण की अनुपादेयता बतलाना ही यहाँ पर उद्देश्य है। 1. अर्थः स एव सर्वो वाक्यान्तरविरचनापरं यत्र तदपरमार्थविभेदं काव्यं प्रतिम्बिकल्पं स्यात्। (काव्यमीमांसा - द्वादश अध्याय) 2. मोऽयं कवेरकवित्वदायी सर्वथा प्रतिबिम्बकल्पः परिहरणीय: यतः"पृथक्त्वेन न गृहन्ति वस्तु काव्यान्तरस्थितम्। पृथक्त्वेन न गृहन्ति स्ववपु: प्रतिविम्बितम्।" काव्यमीमांसा - (द्वादश अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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